उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
बीरसेन–हां-हां, वह गांव हमारा ही है, उसका नाम पालमपुर है।
आदमी–ठीक है, उस गांव के किनारे ही पर आम की एक बारी है। उसी में आप उन लोगों को पावेंगे जिनके पंजे में इस समय महारानी हैं।
बीरसेन–मैं उस आम की बारी को भी अच्छी तरह जानता हूं।
इस बीच रनबीरसिंह भी अपने साथ सौ सिपाहियों को लिए हुए वहां आ पहुंचे और बीरसेन की तरफ देखकर बोले, ‘‘शुक्र है, तुमसे बहुत जल्द मुलाकात हो गई तुम्हारे खास आदमी ने मुझे इत्तिला दी थी और उसी के कहे मुताबिक मैं सौ आदमियों को साथ लेकर आ रहा हूं।
बीरसेन–जी हां, मैं अपने आदमी से ताकीद कर आया था कि वह सब हाल आपसे कह कर आपको इधर आने के लिए कहे। उस समय आप होश में न थे जब मुझे अपनी कार्रवाई के लिए मजबूरन वहां से निकलना पड़ा।
बीरसेन ने पिछला हाल बहुत थोड़े में कहा जिसे रनबीरसिंह गौर से सुनकर बोले, ‘‘कम्बख्त कालिन्दी को तुमने अब भी छोड़ दिया। खैर, अब वहां चलने में देर न करनी चाहिए।’’
पांच आदमियों के साथ उस अपरिचित व्यक्ति को जिसकी कलाई कट गई थी, किले की तरफ रवाना करके बीरसेन रनबीरसिंह अपने बहादुर सिपाहियों को साथ लिए हुए तेजी के साथ पालमपुर की तरफ रवाना हुए और थोड़ी ही देर में उस आम की बारी में जा पहुंचे। इन लोगों के वहां पहुंचते-पहुंचते तक साफ सवेरा हो गया था इसलिए काम में बहुत हर्ज न हुआ।
महारानी कैदियों की तरह जकड़ी हुई एक डोली के अन्दर जिसे बीस आदमी के लगभग घेरे हुए थे, पाई गई थीं। इन लोगों के पहुंचने में अगर आधी घड़ी की भी देर होती तो फिर कुसुम कुमारी का पता न लगता क्योंकि सवेरा हो जाने के कारण बदमाश लोग डोली उठवाकर दो ही कदम आगे बढ़े थे कि बीरसेन और रनबीरसिंह वगैरह ने पहुंच कर उन लोगों को घेर लिया। मगर अफसोस, उसी समय नमकहराम जसवंतसिंह और पांच सौ सिपाहियों को साथ लिए हुए दुष्ट बालेसिंह भी उस जगह आ पहुंचा और बीरसेन और रनबीरसिंह वगैरह को चारों तरफ से घेर कर उस डोली पर झुक पड़ा जिसमें बेचारी कुसुम कुमारी थी।
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