उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
यद्यपि कालिन्दी दोनों मल्लाहों से डरी हुई थी परन्तु उसे आशा थी कि दोनों मल्लाह उसे नदी के पार पहुंचा देंगे, लेकिन ऐसा न हुआ, क्योंकि जब डोंगी नदी के बीचोबीच में पहुंची तो मल्लाहों ने खेवा मांगा।
कालिन्दी–मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, खेवा कहां से दूं।
मल्लाह–(डोंगी को बहाव की तरफ ले जाकर) खेवे की लालच से तो तुम्हें पार उतारते हैं, जब तक खेवा न ले लेंगे पार न जाएंगे।
कालिन्दी–तो डोंगी बहाव की तरफ क्यों लिए जाते हों?
मल्लाह–खेवा वसूल करने की नीयत से?
कालिन्दी–जब मेरे कुछ हुई नहीं है तो खेवा कहां से देंगे?
मल्लाह–कोई जेवर हो तो दे दो।
कालिन्दी–जेवर भी नहीं है।
मल्लाह–जेवर भी नहीं है तो चुपचाप बैठी रहो, जहां हमारा जी चाहेगा तुम्हें ले जाएंगे और जिस तरह से हो सकेगा, खेवा वसूल करेंगे।
मल्लाह की आखिरी बात सुनते ही कालिन्दी सुस्त हो गई और डर के मारे कांपने लगी। उसे निश्चय हो गया कि ये लोग बदमाश हैं और मुझे तंग करेंगे। जैसे-जैसे डोंगी बहाव की तरफ तेजी के साथ जा रही थी, कालिन्दी के कलेजे की धड़कन ज्यादे होती जाती थी। आखिर बहुत मुश्किल से अपने को सम्हाला और वह मानिक की अंगूठी जो उसकी बची-बचाई पूंजी थी और इस समय उसकी उंगली में थी उतारकर एक मल्लाह की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘अच्छा यह एक अंगूठी मेरे पास है, इसे ले लो और मुझे बहुत जल्द पार उतार दो।’’ इसके जवाब में मल्लाह (जो चुपचाप बैठा हुआ था) ‘‘बहुत अच्छा’’ कहके उठा और अंगूठी अपने हाथ में लेकर कालिन्दी के सामने खड़ा हो गया।
कालिन्दी–अब खड़े क्यों हो? किश्ती पार ले चलो।
मल्लाह–अब केवल इसलिए खड़े हैं कि तुझ कमबख्त को अपना परिचय दे दें।
कालिन्दी–(घबड़ा कर) परिचय कैसा?
मल्लाह ने एक चोर लालटेन जिसे अपने बगल में छिपाये हुए था, निकाली और उसके मुंह पर से ढकना हटा के उसकी रोशनी अपने चेहरे पर डाली। उसका चेहरा देखते ही कालिन्दी चिल्ला कर उठ खड़ी हुई और घबड़ा कर पीछे हटती-हटती बेहोश होकर गिर पड़ी।
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