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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

उदास और अपने किए पर पछताती हुई कालिन्दी को यकायक ख्याल आया कि और कोई तो महारानी के डर से मुझे अपने घर में घुसने न देगा मगर यहां से दो कोस की दूरी पर हरिहरपुर मौजे के जमींदार की लड़की जमुना मेरी सखी है और मुझे बहुत चाहती है, शायद वह मेरी कुछ मदद कर सके तो ताज्जुब नहीं, अस्तु इस समय उसी के पास चलना उचित है। कालिन्दी यही सोचती चली जा रही थी मगर हरिहरपुर का रास्ता उसे मालूम न था, वह बिलकुल ही नहीं जानती थी कि मेरी सखी का घर किधर है और किस राह से जाना होगा, हां, इतना जानती थी कि एक नदी रास्ते में पड़ेगी। कालिन्दी के नाक से अभी तक खून जारी था और दर्द से उसका जी बेचैन हो रहा था।

थोड़ी ही देर में एक नदी के किनारे पहुंची और उस समय उसे मालूम हुआ कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है। कालिन्दी ने घूमकर देखा तो दो आदमियों पर निगाह पड़ी। रात अंधेरी थी और कालिन्दी भी घबराई हुई थी इसलिए उन आदमियों की सूरत शक्ल के विषय में वह विशेष ध्यान न दे सकी बल्कि डर के मारे कांपने लगी और खड़ी हो गई। उस समय वे दोनों आदमी भी रुके और एक ने आगे बढ़ के कालिन्दी से कहा, ‘‘डरो मत, मैं खूब जानता हूं कि तुम्हारा नाम कालिन्दी है और तुम इस समय नदी के पार जाना चाहती हो, मगर बिना डोंगी के तुम नदी के पार नहीं जा सकती हो। हम दोनों आदमी मल्लाह हैं, यहां से थोड़ी ही दूर पर हमारी डोंगी है उस पर सवार करा के तुमको नदी के पार उतार देंगे।’’ इतना कहकर उसने अपने साथी की तरफ देखा और कहा, ‘‘जाओ, डोंगी इसी जगह ले आओ।’’

कालिन्दी–(डरी हुई आवाज में) तुमने कैसे जाना कि मैं पार जाऊंगी और बिना मुझसे पूछे अपने साथी को डोंगी लाने के लिए क्यों भेज दिया?

मल्लाह–मुझे खूब मालूम है कि आप पार उतरेंगी और इस पार रहना आपके लिए अच्छा भी नहीं है।

कालिन्दी ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और चुपचाप खड़ी रहकर नदी की तरफ देखती रही। थोड़ी ही देर मे वह दूसरा मल्लाह डोंगी को लिए हुए उसी जगह आ पहुंचा। सोचती-विचारती कालिन्दी उस डोंगी पर सवार हुई और आंचल से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ कर पानी से तर करके अपनी नाक पर पट्टी बांधी। एक मल्लाह खेने लगा और दूसरा चुपचाप बैठ गया।

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