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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

‘‘ओफ, इस स्वप्न से किसी तरह छुट्टी नहीं मिलती। क्या जाने वास्तव में यह स्वप्न है भी या नहीं। (अपने हाथ में चिकोटी काटकर) नहीं-नहीं, यह स्वप्न नहीं है, और देखो पहले जब आंख खुली थी तो पूरब तरफ सूर्य की केवल लालिमा दिखाई देती थी परन्तु इस समय धूप अच्छी तरह निकल आई है। यद्यपि गुंजान पेड़ों के सबब से पूरी धूप यहां तक नहीं पहुंचती केवल बुन्दकियों का मजा दिखा रही है तथापि कुछ गर्मी मालूम होती है। (खड़े होकर और दो-चार कदम टहलकर) नहीं-नहीं-नहीं, यह स्वप्न कदापि नहीं है, मगर आश्चर्य की बात है कि यकायक मैं यहां क्योंकर आ पहुंचा और मेरे कमजोर तथा जख्मी बदन में चलने-फिरने की सामर्थ्य कहां से आ गई। (जख्म पर बंधी हुई पट्टियों की तरफ देखकर) ये पट्टियां वह नहीं हैं जो कुसुम के जर्राह ने लगाई थी, बेशक किसी ने बदली है। (एक पट्टी खोलकर) वह मरहम भी नहीं है, यह तो किसी किस्म की घास पीसकर लगाई हुई है। आश्चर्य आश्चर्य! ईश्वर ने जड़ी-बूटियों में भी क्या सामर्थ्य दी है। जख्म बिलकुल ही मुंद गए हैं मगर मालूम नहीं एक ही दिन में यह बात हुई है या कई दिनों में? आज ही यहां आया हूं या कई दिन से इस जर्मी पर पड़ा हूं? मुझे यहां कौन लाया? यद्यपि मेरी बीमारी तो दूर हो गई परन्तु यह नेकी करने वाले ने मुझे एक उससे भी बड़ी बीमारी में डाल दिया। वह बीमारी कुसुम की जुदाई की है। जख्मों में दवा लगाने के बदले यदि नमक पीसकर डाल दिया जाता तो इतनी तकलीफ न होती जितनी कुसुम की जुदाई से हो रही है, इसीलिए कुछ समझ में नहीं आता कि मैं इसे नेकी कहूं या बदी? यह लो, दाहिनी आंख भी फड़क रही है। लोग इसे अच्छा कहते हैं मगर मैं क्यों कर अच्छा कहूं और कैसे समझूं कि किसी तरह की खुशी मुझे होगी? मैं अपनी तमाम खुशी कुसुम की खुशी के साथ समझता हूं। इस समय उसकी जुदाई में तो अधमुआ हो ही रहा हूं मगर मुझे खोकर वह भी बहुत ही पछताती होगी। हाय, उस आदमी की सूरत भी नहीं दिखाई देती जो उस किले के अन्दर से मुझे इस तरह उठा लाया कि किसी को कानोंकान खबर तक न हुई। वह कौन है? (जोर से) यहां अगर कोई है तो मेरे सामने आवे!

मगर रनबीरसिंह की बात का किसी ने कोई जवाब न दिया, वे और भी घबराए और सोचने लगे कि अब बिना इधर-उधर घूमे कुछ काम न चलेगा, कोई मिले तो उससे पूछूं कि तेजगढ़ किधर और यहां से कितनी दूर है। अफसोस इस समय मेरे पास कोई हर्बा भी नहीं है। यदि किसी दुश्मन से मुलाकात हो जाए तो मैं क्या कर सकूंगा?

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