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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

यकायक रनबीरसिंह की निगाह एक लिखे हुए कागज पर जा पड़ी जो उस पेड़ के साथ चिपका हुआ था जिसके नीचे कोमल पत्तों के बिछावन पर उन्होंने अपने को पाया था। पास जाकर देखा तो यह लिखा हुआ था–‘‘उसको मत भूलो जिसने तुमको सब योग्य बनाया। पश्चिम की तरफ जाओ, जहां तक जा सको। दोस्त और दुश्मनों से होशियार रहो।’’

इसके पढ़ने से एक नई फिक्र पैदा हुई क्योंकि उस कागज में पश्चिम तरफ जाने की आज्ञा के साथ ही दोस्त और दुश्मनों से अपने को बचाने के लिए ध्यान दिलाया गया था। थोड़ी देर तक तो खड़े-खड़े कुछ सोचते रहे, अन्त में यह कहते हुए पश्चिम तरफ को चल निकले कि–जो होगा देखा जाएगा।

लगभग आध कोस के जाने के बाद उन्हें पत्ते की एक झोंपड़ी दिखाई पड़ी जिसके आगे की जमीन बहुत साफ और सुथरी थी। छोटे-छोटे जंगली मगर खुशनुमा पेड़ों को लगाकर छोटा-सा बाग भी बनाया हुआ था जिसके बीच में एक साधु धूनी लगाए बैठा था, जिसने रनबीरसिंह को देखते ही पुकारा और कहा, आओ रनबीर, मैं मुबारकवाद देता हूं कि तुम दुश्मन के हाथ से बच गए।

रनबीर–(पास जाकर और दण्डवत करके) मेरी समझ में न आया कि आपने किस दुश्मन की तरफ इशारा करके मुझे मुबारकवाद दी?

साधु–(आशीर्वाद देकर) आओ मेरे पास बैठ जाओ, सब कुछ मालूम हो जाएगा।

रनबीर–(बैठकर और हाथ जोड़कर) क्या आप अपना परिचय मुझे दे सकते हैं?

साधु–हां, परन्तु आज नहीं इसके बाद मैं एक दफे तुमसे और मिलूंगा तब अपना हाल कहूंगा। इस समय जो जरूरी बातें मैं कहता हूं उसे ध्यान देकर सुनो।

रनबीर–आज्ञा कीजिए, मैं ध्यान देकर सुनूंगा।

रनबीरसिंह के ऊपर उस साधु का रोब छा गया। दमकता हुआ चेहरा कहे देता था कि साधु महाशय साधारण नहीं हैं बल्कि तपोबल की बदौलत अच्छे दर्जे को पहुंच चुके हैं। उनकी अवस्था चाहे जो हो परन्तु सिर और दाढ़ी के बाल चौथाई से ज्यादे सफेद नहीं हुए थे, और रनबीरसिंह गौर करने पर भी नहीं समझ सकते थे कि इन साधु महाशय की इज्जत और मुहब्बत उनके दिल में ज्यादे क्यों होती जा रही है।

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