उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
थोड़ी देर तक चिन्ता करने के बाद रनबीरसिंह उठ खड़े हुए और यह जानने के लिए पालकी की तरफ बढ़े कि उसके अन्दर कौन है और इतने सिपाही उस पालकी को घेर कर क्यों और कहां चले जाते हैं। इस विचार के साथ ही रनबीरसिंह को यह भी शक हुआ कि इन सिपाहियों को हमने कहीं देखा है, यह इनकी चाल-ढाल से जानकार अवश्य हैं। आखिर दिल ने गवाही दी और बता दिया कि बेशक ये सब बालेसिंह के सिपाही हैं।
हम ऊपर लिख आए हैं कि इस सफर में रनबीरसिंह फकीराना भेष में थे, साथ ही उनका शरीर भी इतना काला हो गया था कि उनकी मां भी यदि देखती तो शायद पहचान न सकती, इसलिए हमारे बहादुर ने निश्चय कर लिया कि ये लोग मुझे कदापि न पहचान सकेंगे अस्तु पास चलकर टोह लेना चाहिए कि ये लोग कहां जा रहे हैं और इस पालकी के अन्दर कौन है।
रनबीरसिंह मस्त साधु की नकल करते हुए उस पालकी की तरफ चले अर्थात कभी जमीन और कभी आसपास की तरफ देखते और यह बकते हुए आगे बढ़े कि–‘‘अहा! तू ही तो है!’’ जब पालकी के पास पहुंचे तो सिपाहियों ने हाथ जोड़ा और अनोखे बाबाजी ने पालकी की तरफ देख के कहा–अहा! तू ही तो है! फिर आसमान की तरफ देखके कहा-अहा! तू ही तो है! उस पालकी का पट खुला हुआ था इसलिए रनबीरसिंह ने देख लिया कि उसके अन्दर बालेसिंह लेटा हुआ है।’’
ऐसे उजाड़ और बीहड़ स्थान में बालेसिंह को देखकर रनबीरसिंह को ताज्जुब नहीं हुआ क्योंकि स्वामीजी की बदौलत वे बालेसिंह के गुप्त भेदों को अच्छी तरह जान चुके थे और उन्हें यह भी निश्चय हो गया था कि जहां मैं जा रहा हूं बालेसिंह भी उसी जगह जाएगा। बालेसिंह के सिपाहियों ने भी रनबीरसिंह को अच्छी तरह गौर से देखा मगर महात्मा जानकर चुप हो रहे, कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी। रनबीरसिंह भी ज्यादा देर तक पालकी के पास न रहे, वहां से लौट कर चश्मे के पार उतर गए और एक पेड़ के नीचे बैठकर देखने लगे कि वे लगे कि अब वे लोग क्या करते हैं या किधर जाते हैं।
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