उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
घंटे ही भर के बाद अन्धकार ने धीरे-धीरे अपना दखल जमा लिया। बालेसिंह के सिपाहियों ने मशालें जलाईं, कहारों ने पालकी उठाई और सभी ने उस तरफ का रास्ता लिया जिधर चश्मे का पानी बहकर जा रहा था। रनबीरसिंह को भी उसी तरह जाना था मगर एक तो संध्या हो गई थी दूसरे बालेसिंह के साथ जाना भी मुनासिब न जाना, लाचार यह निश्चय किया कि रात इसी जंगल में बितावेंगे और सवेरा होने पर रवाना होंगे। रनबीरसिंह एक पत्थर की चट्टान पर लेट रहे मगर दिन को सो जाने और इस समय तरह-तरह के विचारों मे डूबे रहने के कारण उन्हें नींद न आई। पहर रात जाते-जाते तक जंगली जानवरों के बोलने की आवाज आने लगी। ऐसी अवस्था में वहां ठहरना उचित न जान रनबीरसिंह एक ऊंचे और घने पेड़ पर चढ़ गए।
उन्हें पेड़ पर चढ़े आधी घड़ी से ज्यादे न बीती थी कि दूर से मशाल की रोशनी नजर आई जो इन्हीं की तरफ चली आ रही थी, कुछ पास आने पर मालूम हुआ कि एक आदमी हाथ में मशाल लिए हुए आगे है और उसके पीछे पांच औरतें और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए एक सिपाही है। कुछ ही देर में वे औरतें उसी पेड़ के नीचे आ पहुंची जिस पर रनबीरसिंह चढ़े हुए थे। वे पांचो औरतें कमसिन और खूबसूरत थीं लेकिन पोशाक उनकी बिलकुल ही सादी यद्यपि साफ थी, बदन में जेवर का नाम निशान न था। ये औरतें बहुत ही खूबसूरत और भोली-भाली थी मगर इनके चेहरे पर रंज गम और तरद्दुद की निशानी साफ-साफ पाई जाती थी। ये सब औरतें एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गईं जो उसी पेड़ के नीचे था, एक तरफ मशालची खड़ा हो गया और दूसरी तरफ वह सिपाही भी हुकूमत की निगाह से उन औरतों की तरफ देखता हुआ खड़ा हो गया।
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