उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
अन्दाज से मालूम होता था कि इन सभी को शीघ्र ही किसी के आने की आशा है, क्योंकि वे पांचों औरतें सिर झुकाए बैठी हुई थीं। मशालची अपना काम कर रहा था, सिपाही को केवल हिफाजत का खयाल था पूरी तौर से सन्नाटा था, कोई किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं करता था। आधे घंटे तक यही हालत रही, इसके बाद घोड़े की टापों की नर्म आवाज आने लगी, जिससे साफ जाना जाता था कि कोई आदमी घोड़े पर सवार धीरे-धीरे इसी तरफ आ रहा है। टापों की आवाज ने सभी को चौंका दिया, मशालची ने कुप्पी में से तेल उलट कर मशाल की रोशनी तेज कर दी, सिपाही अपने कुर्ते को जो कई जगह से सिकुड़ गया था, खींच-तानकर और चपरास को ठीक कर मुस्तैदी के साथ खड़ा हो गया, मगर उन पांचों औरतों के चेहरे पर बदहवासी का हिस्सा बहुत ज्यादा हो गया और वे तरद्दुद भरी निगाहों से एक दूसरी को देखने और आंसू की बूंदे गिराने लगीं। बात की बात में वह सवार वहां आ पहुंचा जिसके आने की आहट ने सभी की हालत बदल दी थी। उसे देखते ही वे औरतें उठी और हाथ जोड़कर मगर सिर झुकाए हुए सामने खड़ी हो गई। पेड़ पर बैठे हुए रनबीरसिंह सोच रहे थे कि वह बेशक कोई जालिम और भयानक रूपधारी मनुष्य होगा जिसके आने की आहट से वे औरतें ज्यादे दुःखी और परेशान हो गई थीं, मगर नहीं यह आदमी बहुत ही हसीन और नौजवान था। इसकी पोशाक भी बेशकीमती थी, इसका मुश्की घोड़ा भी बहुत ही खूबसूरत और चंचल था, और सूरत देखने से यह जवान नेक और रहमदिल भी मालूम पड़ता था, फिर भी न मालूम वे औरतें उसके आने से इतना क्यों डरी थीं। हां, एक बात और कहने के लायक है जो यह कि उस अभी आए हुए नौजवान की सूरत से भी रंज और गम की निशानी पाई जाती थी। वह अपने घोड़े से नहीं उतरा मगर हसरत भरी निगाहों से उन औरतों की तरफ देखने लगा।
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