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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

जसवंत–मैं उस गांव के पास पहुंचा भी न था कि पांचों सवारों के दर्शन हुए। उन्होंने मुझसे रोक-टोक की पर मैंने अपना ठीक पता नहीं दिया फिर भी उनकी बातचीत से मुझे शक हुआ, नहीं बल्कि निश्चय हो गया कि वे लोग इस पहाड़ी पर जरूर पहुंचेंगे क्योंकि उनके सरदार ने अपने जेब से एक तस्वीर निकालकर देखी और कहा, ‘‘मैं उस दूसरे आदमी की खोज में निकला हूं–इससे कोई मतलब नहीं, चलो देरी होती है।’’ इतना कह साथियों को साथ ले वह तेजी से इसी पहाड़ी की तरफ रवाना हुआ। मुझे यकीन हो गया कि ये लोग जरूर मेरे दोस्त को परेशान करेंगे इसलिए मैं भी तुरंत इसी तरफ लौटा मगर अब क्या हो सकता था, वे लोग घोड़ों पर थे और मैं पैदल, जब तक यहां पहुंचूं, वे लोग मेरे प्यारे दोस्त को गिरफ्तार करके ले गए। यहां आकर जब मैंने अपने लंगोटिए दोस्त को न देखा, जी में बड़ा दुःख हुआ। यह बाग राक्षस की तरह खाने को दौड़ने लगा। उसी वक्त पहाड़ी के नीचे उतर गया और जहां हमारे घोड़े मरे पड़े थे वहीं बैठकर रनबीरसिंह के बारे में सोचने लगा। आखिर अपने कपड़े उतारकर फेंक दिए और इस फकीरी सूरत में दोस्त को खोजने निकला, दिल में निश्चय कर लिया कि बिना उनसे मिले खुद भी अपने घर न लौटूंगा, इसी सूरत में रहूंगा। उन्हीं की खोज में फिर उसी गांव की तरफ जा रहा था कि रास्ते में आप लोगों से मुलाकात हुई। इसके आगे का हाल आप जानते ही है, मैं क्या कहूं।’’

इतना कह जसवंतसिंह दोस्त के गम में आंसू गिराने लगे, यहां तक कि हिचकी बंध गई।

सरदार ने उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया और दिलासा देकर कहा, ‘‘आप इतना सोच न कीजिए। हम लोग आपके साथ है, जब तक दम है आपके मित्र का पता लगाने में कसर न करेंगे और न उनके दुश्मन से बदला लिए बिना ही छोड़ेंगे। मगर आपका यह सोचना ठीक नहीं कि जब तक दोस्त न मिले तब तक बाबाजी बने रहें, आप अकेले ढूंढने निकलते तो जोगी बनना वाजिब था, मगर हम लोगों के साथ फकीरी भेष में चलना ठीक नहीं है क्योंकि इसका कोई ठिकाना नहीं कि हम लोगों को कब लड़ने-भिड़ने का मौका आ पड़े तो, क्या आप क्षत्रिय होकर उस वक्त खड़े मुंह देखेंगे?’’

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