उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीरसिंह मृगछाला पर से उठ खडे हुए और सोचने लगे कि यह आवाज किधर से आई? उनकी आंखें सुर्ख हो गईं और क्रोध के मारे बदन कांपने लगा। उनका ध्यान उस छोटे से दरवाजे पर गया जिसमें साधारण छोटा-सा ताला लगा हुआ था। रनबीरसिंह उसके पास गए, कमर से कटार निकालकर धीरे से उस ताले का जोड़ खोल डाला और कुण्डे से ताला अलग करने के बाद दरवाजा खोल कर अन्दर की तरफ झांका। भीतर अन्धकार था जिससे कुछ मालूम न पड़ा। जहां रनबीरसिंह का आसन लगा हुआ था उसके पास ही एक दीवार के ऊपर चिराग चल रहा था, रनबीरसिंह ने वह चिराग उठा लिया और उस छोटी-सी खिड़की के अन्दर चले गए। यहां उन्होंने अपने को एक लम्बी-चौड़ी कोठरी में पाया। चारों तरफ दीवार में सैकड़ों खूंटियां गड़ी हुई थीं और उनमें तरह-तरह की पोशाकें लटक रही थीं, जिनमें से कोई-कोई पोशाक तो बहुत ही बेशकीमत थी मगर बहुत दिनों तक यों ही पड़े रहने के कारण बर्बाद सी हो रही थी कोई पोशाक सौदागरों की सी, कोई सिपाहियों की सी, और किसी-किसी खूंटी पर जानने कपड़े भी लटक रहे थे। रनबीरसिंह एक खूंटी के पास गए जिस पर एक बेशकीमत पोशाक लटक रही थी उस पर एक टुकड़ा सफेद कपड़े का सीया हुआ था और उस टुकड़े पर यह लिखा था, ‘‘यह भूदेवसिंह अपने को बड़ा ही बहादुर लगाता था।’’
इसके बाद एक दूसरी पोशाक के पास गए जो किसी जमींदार की मालूम पड़ती थी और उसके साथ भी सफेद कपड़े का टुकड़ा सीया हुआ था और उस पर यह लिखा था, ‘‘इसे अपनी जमींदारी का बड़ा ही घमण्ड था। किसी से डरता ही न था और अपने को जालिमसिंह के नाम से मशहूर कर रखा था।’’ इस पोशाक के बगल ही में एक जनानी साड़ी लटक रही थी और उस पर यह लिखा हुआ था, ‘‘यह चन्द्रावती रनबीरसिंह को अपनी गोद से उतारती ही न थी।’’ इस लिखावट ने रनबीरसिंह के गुस्से के साथ वह काम किया जो घी भभकती हुई आग के साथ करता है, मगर क्रोध का मौका न जानकर उन्होंने बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाला तथा फिर और किसी पोशाक के पास जाने का इरादा न किया इतने ही में वह आवाज फिर सुनाई दी जिसे सुनकर रनबीरसिंह बेताब हुए थे मगर अबकी दफे शब्द बदले हुए थे अर्थात् कहने वाले ने यह कहा, ‘‘हाय कुसुम! तेरे साथ किसी ने दगा तो नहीं की!
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