उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीरसिंह ने दिन भर उसी पेड़ के नीचे बिताया और वही ग्यारह फल खाकर आत्मा को सन्तोष कराया, संध्या होने पर मकान के अन्दर गए, अगवानी के लिए आदमियों के साथ सरदार को दरवाजे पर मौजूद पाया, झूमते और उन्हीं मामूली शब्दों का उच्चारण करते हुए मकान के अन्दर गए और अपने स्थान पर मृगछाला के ऊपर जा बिराजे। नैवेद्य की रीति पर खाने-पीने की सामग्री आगे रखी गई मगर रनबीरसिंह ने इनकार करके कहा, ‘‘मैं फल के सिवाय और कुछ भी नहीं खाता, इसके अतिरिक्त मैं तो तुमसे कह चुका हूं कि आज का पूरा दिन और रात उपासना में बिताऊंगा, अस्तु इसे ले जाओ कल देखा जाएगा। अब मैं दरवाजा बन्द करके ध्यान करना चाहता हूं मगर यह मकान सन्नाटे का नहीं है, उत्तर तरफ कोने में जो कोठरी है वह मुझे इस काम के लिए पसन्द है कल घूम फिर के देखने के समय उसे भी मैंने देखा था!’’ इसके जवाब में सरदार ने कहा, ‘‘जैसी इच्छा गुरु महाराज की चलिए।’’
रनबीरसिंह ने देखा कि आखिरी बात कहते समय सरदार के चेहरे की रंगत कुछ बदल गई परन्तु दिलावर रनबीर ने इसका कुछ खयाल न किया और उस स्थान पर चलने के लिए तैयार हो गए। सरदार ने भी रनबीर की इच्छानुसार सब सामान उसी कोठरी में ठीक से कर दिया, रनबीर ने भीतर से दरवाजा बन्द करके मृगछाला पर आराम किया, कोठरी में गर्मी बहुत थी जिसे पंखे से निवारण करने लगे।
यह कोठरी यद्यपि बहुत-चौड़ी तो न थी तथापि इसमें चार-पांच चारपाई बिछने लायक जगह थी। एक तरफ दीवार में छोटा-सा दरवाजा था जिसमें एक साधारण पुराना ताला लगा हुआ था। आधी रात जाने के बाद रनबीरसिंह के कान में एक आवाज आई, उन्हें साफ सुनाई दिया कि मानो किसी ने दिल के दर्द से दुःखी होकर कहा, ‘‘प्यारे रनबीर! तू इस दुनिया में है भी या नहीं। यह आवाज भारी और कुछ बूझी हुई थी, रनबीरसिंह को केवल इतना ही निश्चय नहीं हुआ कि यह आवाज किसी मर्द की है बल्कि उन्हें और भी कई बातों का निश्चय हो गया जिससे वे बेताब हो गए। इस समय यदि कोई उन्हें देखता तो ठीक वैसी ही अवस्था में पाता जैसी गोली लगने पर शेर की होती है और इसका अनुभव उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने शेर का शिकार किया या अच्छी तरह देखा है।
|