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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

आगे-आगे वह नौजवान, उसके पीछे बूढ़ी औरत, फिर रनबीरसिंह के पिता और सबके पीछे रनबीरसिंह वहां से रवाना हुए। चौकठ पार हो जाने पर उन्होंने उस रास्ते को एक सुरंग की तरह पाया जिसके खत्म होने के बाद सीढ़ी की राह से ऊपर चढ़ना पड़ता था। वे लोग जब उस राह से बाहर निकले तो अपने को मकान के अन्त में पश्चिम तरफ की मामूली कोठरी के दरवाजे पर पाया उस समय रनबीरसिंह ने नौजवान से पूछा–

‘‘अब तुम्हारी क्या राय है?’’

नौजवान–पहले आप ही बताइए कि आपकी क्या राय है?

रनबीर–नहीं, पहले तुम्हीं को अपनी राय देनी चाहिए क्योंकि मैं यहां की हर एक बातों से अनजान हूं।

नौजवान–मान लीजिए कि यहां पर आप हर तरह से अनजान हैं मगर यह कहिए कि अगर हम लोग आपको न मिलते तो आप क्या करते?

रनबीर–अगर तुम लोग न मिलते तो मुझे बहुत कुछ सोचना और गौर करना पड़ता, क्योंकि मैंने कई दिन की जल्दी की थी।

बुढ़िया–(ताज्जुब से) तो क्या दो-चार दिन में यहां आपका कोई मददगार आने वाला है और क्या वह भी आप ही की तरह से आवेगा?

रनबीर–यह मैं नहीं कह सकता कि कौन और किस तरह आवेगा मगर बाबाजी ने इतना कहा था कि तुम्हारे पास फलाने दिन मदद पहुंच जाएगी, मगर यकायक (पिता की तरफ इशारा करके) इनकी आवाज पाकर मैं कैदखाने में चला गया और वहां तुम्हारे सरदार के पहुंच जाने से उसे भी मारना पड़ा।

बुढ़िया–मैं भी यही सोचे हुए थी कि आपको मुझसे मदद लेने की जरूरत पड़ेगी और आपका काम दो-एक रोज के बाद होगा, यही बात मैंने अपने लड़के से भी कही थी।

नौजवान–मुझे भी जब मां ने यह बताया कि आप फलाने हैं तो मैं हर एक बातों से होशियार हो गया। आज जब मैंने देखा कि सरदार को आप का शक हुआ है और वह इस राह से कैदखाने में जा रहा है तो हम दोनों भी छिपकर उसके पीछे-पीछे चले गए और वहां उसकी अनूठी मौत देखने में आई।

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