उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–मैंने यह प्रण कर लिया था कि यहां जितने कैदी हैं सभी को छुड़ाऊंगा मगर अब एक तरद्दुद-सा मालूम होता है।
बुढ़िया–मगर सरदार का मरना दो दिन तक छिपा रहे तो सब कुछ हो सकता है मगर जिस समय (रनबीर के पिता की तरफ इशारा करके) इनको मामूली समय पर खाना देने के लिए वह आदमी जो नित्य जाया करता है जाएगा तो सब बातें खुल जाएंगी और सरदार के नौकर तथा साथी सब आफत मचा डालेंगे।
नौजवान–यह हो सकता है कि दो दिन तक खाना पहुंचाने का जिम्मा मैं ले लूं और किसी को कैदखाने में जाने न दूं।
बुढ़िया–तो बेहतर है कि यही किया जाए और लोगों को इस बात की खबर कर दी जाए कि गुरुजी महाराज ने सरदार को किसी गुप्त कार्य के लिए कहीं भेजा है और इधर इन्हें (रनबीर के पिता को) दो दिन तक कहीं छिपा रखा जाए, ऐसी अवस्था में दो दिन में कोई खराबी नहीं हो सकती।
रनबीर–बात तो बहुत अच्छी है मगर दो दिन तक रुके रहना बड़ा कठिन जान पड़ता है, यहां से इसी समय चल देना ही ठीक होगा।
नौजवान–मगर क्योंकर जा सकेंगे? यह तो आप जानते ही हैं कि रास्ता बहुत खराब और पथरीला है और पीछा करने वाले हम लोगों को बहुत जल्द पकड़ लेंगे।
रनबीर–हां, यह तो मैं जानता हूं मगर मैंने इसके लिए भी एक तरकीब सोची है।
नौजवान–वह क्या?
रनबीर–पहले यह तो बताओ कि रात कितनी बाकी होगी?
नौजवान–रात अभी पहर भर से भी ज्यादे बाकी है।
रनबीर–तब तो जो कुछ मैंने सोचा है वह बखूबी हो जाएगा, अच्छा यह कहो कि तुम अपने सरदार की कोठरी में जाकर उसके पहनने के कपड़े जिसे वह सफर में जाती समय पहनता हो, ला सकते हो?
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