उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
नौजवान–हां, मैं ला सकता हूं मगर फिर...(कुछ रुक कर) अच्छा, अच्छा मैं समझ गया, वह कपड़ा आप इनको (रनबीर के पिता को) पहनावेंगे और यहां से निकाल ले चलेंगे। ठीक तो है, ऐसा करने से हम लोग सभी के देखते ही देखते यहां से निकल चलेंगे और कोई आदमी पीछा भी न करेगा, हां, उस समय हम लोगों का हाल यहां वालों को जरूर मालूम हो जाएगा जब कैदी को भोजन देने के लिए कोई आदमी तहखाने में जाएगा।
रनबीर–तब तक तो हम लोग बड़ी दूर निकल जाएंगे। और हां, एक काम चलते-चलते तुम और करना।
नौजवान–वह क्या।
रनबीर–चलते समय यहां के किसी ऐसे आदमी को जो तुम्हारे बाद बाकी नालायकों पर हुकूमत कर सकता हो कह देना कि तुमको और तुम्हारी मां को भी सरदार साहब और गुरु महाराज किसी काम के वास्ते कहीं लिए जा रहे हैं और हुक्म देना कि कल तक कोई आदमी फलाने कैदी को दाना-पानी न दे।
नौजवान–बात तो ठीक है, और ऐसा करने से हम लोग बेफिक्री के साथ चले जाएंगे। (कुछ जोश में आकर) उंह, अगर कोई कमबख्त हम लोगों का पीछा करेगा ही तो क्या होगा? केवल यहां से पांच कोस अर्थात सरहद के बाहर हो जाना चाहिए, फिर बीस-पचीस आदमी भी हमारा कुछ नहीं कर सकते, आपकी बहादुरी को मैं अच्छी तरह जान गया हूं और मैं भी आपकी ताबेदारी करने लायक हूं।
रनबीर–खैर तो तुम अब जाओ और जो कुछ मैंने कहा है उसे जल्दी करो जिसमें आधे घण्टे से ज्यादे देर न होने पावे और हम लोग अंघेरा रहते यहां से निकल चलें।
नौजवान–बहुत अच्छा, मैं अभी जाता हूं, आप लोग इसी जगह खड़े रहिए।
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