उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
दीवान–(खड़े होकर) आज्ञा?
राजा–हम लोगों के सिवाय कोई दूसरा आदमी इस कमरे में न आने पावे और यदि कोई बाहर हो तो इतनी दूर हो कि हम लोगों की बातें न सुन सके। दीवान साहब कमरे के बाहर चले गए और थोड़ी ही देर में सब बन्दोबस्त जैसा कि राजा साहब ने कहा था हो गया।
हम ऊपर लिख आए हैं कि इस कमरे में एक तरफ संगमरमर की दो बड़ी मूरतें थीं, उनमें से एक तो कुसुम कुमारी के पिता कुबेरसिंह की मूरत थी और दूसरी मूरत रनबीरसिंह के पिता इन्द्रनाथ की थी, इस समय सब कोई उसी मूरत के सामने बैठे हुए थे। यकायक दोनों मूरतें हिलने लगीं जिसे देख कुसुम कुमारी और बीरसेन को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। तीन ही चार सायत के बाद वे दोनों मूरतें गज-गज भर अपने चारों तरफ की छत लिए हुए जमीन के अन्दर चली गई और उसके बदले में उसी गड़हे के अन्दर से पांच आदमी बारी-बारी से इस तरह निकलते हुए दिखाई दिए जैसे कोई धीरे-धीरे सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ रहा हो।
उन पांचों आदमियों में से दो आदमियों को तो दीवान साहब बीरसेन और कुसुम कुमारी भी पहचान गई मगर बाकी के तीन आदमियों को जो फकीरी सूरत में थे सिवाय राजा नारायणदत्त के और किसी ने भी नहीं पहचाना।
जिस समय वे पांचों आदमी छत के नीचे से ऊपर आए उसी समय राजा नारायणदत्त, दीवान साहब और बीरसेन उठ खड़े हुए। बेचारी कुसुम कुमारी सहम कर एक तरफ हट गई। राजा नारायणदत्त दौड़कर उन तीनों साधुओं में से एक साधु के पैर पर गिर पड़े और आंसुओं की धारा से उसके चरण की धूलि धोने लगे। उस साधु ने मुहब्बत के साथ राजा साहब की पीठ पर हाथ फेरा और उठाकर कहा, ‘‘अपने सच्चे प्रेमी मित्र से मिलो!’’ यह कहकर दूसरे साधु की तरफ जो उनके बगल ही में था इशारा किया और राजा साहब झपट कर उसके गले के साथ चिमट गए। उस साधु ने भी बड़े प्रेम से राजा साहब को गले लगा लिया और दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली।
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