उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
इन शब्दों के सुनने से कुसुम के दिल की मुरझाई हुई कली यकायक तरोताजा हो गई और उसे जितनी खुशी हुई उसका हाल स्वयं वही जान सकती थी। वह खुशी-खुशी महाराज को साथ लिए हुए उस कमरे की तरफ रवाना हुई और बीरसेन बैठने का सामान करने के लिए तेजी के साथ आगे बढ़ गए।
इसके थोड़ी ही देर बाद महाराज नारायणदत्त कुसुम कुमारी दीवान साहब और बीरसेन को हम उस चित्रवाले कमरे में बैठे हुए देखते हैं जिसमें से रनबीरसिंह यकायक गायब हो गए थे।
राजा–(चारों तरफ देख के) अहा! आज यहां एक सच्चे मित्र से मिलने की अभिलाषा मुझे कितना प्रसन्न कर रही है सो मैं ही जानता हूं। (दीवान से) क्यों सुमेरसिंह, अब कितनी रात बाकी होगी?
दीवान–(हाथ जोड़ के) जी, यही कोई डेढ़ पहर रात होगी।
राजा–अब समय निकट ही है।
बीरसेन–क्या रनबीरसिंहजी से इसी कमरे में मुलाकात होगी?
राजा–हां, वह अकस्मात इसी कमरे में दिखाई देगा।
बीरसेन–सो कैसे?
राजा–(मुसकराकर) वैसे ही जैसे यहां से गायब हो गया था।
कुसुम कुमारी सिर नीचा किये तरह-तरह की बातें सोच रही थी। उसे यकायक राजा नारायणदत्त के इस ढंग से यहां आने पर बड़ा ही आश्चर्य था और उसे यह भी विश्वास हो गया था कि आज यहां कोई नया गुल खिलने वाला है। राजा साहब की बातें उसे और भी आश्चर्य में डाल रही थीं और वह ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि–हे ईश्वर, जो कुछ अद्भुत और आश्चर्य जनक घटना तुझे दिखलानी हो शीघ्र दिखा!!
राजा–(दीवान से) इस जगह तीन-चार साधुओं के बैठने का सामान शीघ्र करना होगा।
दीवान–जो आज्ञा! (बीरसेन की तरफ देखकर) आप किसी को आज्ञा दे दें
राजा–नहीं-नहीं, बीरसेन को यहां बैठा रहने दीजिए, आप स्वयं बाहर जाकर इसका प्रबन्ध कीजिए, केवल इतना ही नहीं एक प्रबन्ध आपको और भी करना होगा।
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