उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–जसंवत, उस गांव तक तो पहुंचना इस वक्त मुश्किल है, अब तो इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि आगे चलने की कोशिश करें, इसी बगीचे में कहीं रात काटना मुनासिब होगा, जरा देखो तो इसका दरवाजा किधर है।
जसवंत–वह देखिए पूरब तरफ दो घने पेड़ दिखाई दे रहे हैं मुमकिन है उधर ही दरवाजा भी हो।
रनबीर–चलो, उधर ही चलें।
दोनों आदमी उन घने पेड़ों की तरफ चले। जसवंतसिंह का ख्याल ठीक ठहरा, वे दोनों पेड़ दोनों तरफ थे और बीच में एक छोटा-सा खूबसूरत दरवाजा था। रनबीरसिंह ने दरवाजे को धक्का दिया जो भीतर से बंद न था, खुल गया, और ये दोनों उसके अंदर गए।
रात हो गई थी, मगर चांदनी खूब खिली हुई थी। ये दोनों उस छोटे से दिलचस्प बाग में टहलने लगे। पश्चिम तरफ एक छोटी-सी खूबसूरत बारहदरी थी, मगर किसी तरह के सामान से सजी हुई न थी, उसी के बगल में एक मंदिर नजर आया जिसके आगे छोटा-सा संगीन कुआं था और रस्से में बँधा हुआ लोहे का एक डोल भी उसी जगह पड़ा था।
दोनों उस मंदिर के अंदर गए, भीतर अंधेरा था, मगर बाहर की चांदनी की चमक से जो उसके चबूतरे पर पड़ रही थी इतना मालूम हुआ कि इसमें कोई देवता बैठे हुए नहीं हैं, बल्कि उनकी जगह बीचोबीच में दो पत्थर की मूर्तियां ठीक आदमी के बराबर की बैठाई हुई हैं, जिन्हें देख इन दोनों को भ्रम हो गया कि दो आदमी बैठे हैं, मगर बड़ी देर तक न हिलने-डोलने से जान पड़ा कि ये आदमी नहीं पत्थर की मूर्तियां हैं।
रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘भाई जसवंत, इस वक्त तो कुछ भी समझ में नहीं आता कि ये मूर्तियां कैसी या किसकी हैं। चलो बाहरवाले कुएं पर लेट रहें। सवेरे देखा जाएगा। मुझे प्यास भी बड़े जोर की लगी है, मगर जब तक यह न मालूम हो कि यह बाग किसका है या यह डोल किस जात के पानी पीने का है, तब तक इस डोल में पानी भरकर कैसे पीऊं?’’
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