उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसंवतसिंह बोले, ‘‘आपने ठीक कहा। इस बगीचे में कोई माली भी नहीं दिखाई देता जिसमें पूछें कि यहां का मालिक कौन है या यह डोल हम लोगों के पानी पीने लायक है या नहीं। हां, एक बात हो सकती है। उन डोलों में से रस्सी खोल ली जाए और उससे अपनी चादर जो कमर के साथ कसी है, बांधकर कुएं में ढीली जाय, दो-तीन दफे डुबोकर निकालने और निचोड़कर पीने से जरूर जी भर जाएगा, फिर सवेरे ईश्वर मालिक है।’’
लाचार होकर इस बात को रनबीरसिंह ने पसंद किया, कुएं पर आए और उसी तरकीब से जो जसवंतसिंह ने सोची थी प्यास बुझाई।
ज्यों-ज्यों करके रात काटी। ध्यान तो उन मूर्तियों में लगा हुआ था। सवेरे उठते ही पहले उस मंदिर में जाकर उन अद्भुत मू्र्तियों को देखा।
यह दोनों बैठी हुई मू्र्तियां ठीक आदमियों जैसी ही थीं और उनके डील-डौल ऊंचाई-नीचाई में कुछ भी फर्क न था। ये दोनों, रनबीरसिंह और जसवंतसिंह, एकटक उन मूर्तियों की तरफ देखने लगे।
इनमें एक मूर्ति मर्द की और दूसरी औरत की थी। देखने से यही जी में आता था कि अगर मिले तो उस कारीगर के हाथ चूम लें, जिसने इन मूर्तियों को बनाया है। चाल-ढाल, हाव-भाव, रंग-रोगन सभी ऐसे थे कि चालाक-से-चालाक आदमी भी एक दफे धोखा खा जाए।
दोनों मूर्तियां एक-से-एक बढ़के खूबसूरत, दोनों ही का युवा अवस्था, दोनों ही का गोरा रंग, दोनों ही के सभी अंग सुंदर और सुडौल, दोनों ही का चेहरा चंद्रमां को कलंकित करनेवाला, दोनों ही की राजशाही पोशाक और दोनों ही बदन पर कीमती गहने पहने हुए थे।
स्त्री हाथ जोड़े सिर नीचा किए बैठी है, दोनों आंखों से आंसू की बूंदे गिरकर दोनों गालों पर पड़ी हुई हैं, बड़ी-बड़ी आंखे सुर्ख हो रही हैं। मर्द प्रेम भरी निगाहों से उस स्त्री के मुख की तरफ देख रहा है, बायां हाथ गर्दन में डाले और दाहिने हाथ से उसकी ठुड्डी पकड़कर ऊपर की तरफ उठाना चाहता है, मानों उसे उदास और रोते देख दुःखित हो प्रेम के मनाने और खुश करने की चेष्टा कर रहा हो।
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