उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसवंत–क्या मैं आपका दुश्मन हो गया?
रनबीर–बेशक।
जसवंत–कैसे?
रनबीर–हर तरह से।
जसवंत–आपने कैसे जाना?
रनबीर–अच्छे सच्चे और पूरे सबूत से जाना।
जसवंत–अफसोस, एक नालायक बदमाश बालेसिंह के कहने से आपका चित्त मेरी तरफ से फिर गया और लड़कपन के संग साथ और दोस्ती की तरफ जरा भी खयाल न गया!
रनबीर–दूर हो मेरे सामने से, हरामजादे के बच्चे! तेरे तो मुंह देखने का पाप है। सच है, बड़ों का कहना न मानना अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारना है। मेरे पिता बराबर कहते थे कि यह दुष्ट सात पुश्त का हरामजादा है, इसका साथ छोड़ दे नहीं तो पछताएगा। हाय, मैंने उनकी बात न मानी और तेरी जाहिरा-सूरत और मीठी बातों में फंसकर अपने को खो बैठा। वह तो ईश्वर की कृपा थी कि जान बच गई, नहीं तो मैंने उसके लेने पर भी कमर बांध ली थी!
जसवंत–यह खयाल आपका गलत है। आप आजमाने पर मुझे ईमानदार और अपना सच्चा दोस्त पावेंगे।
इतनी बात सुनते ही रनबीरसिंह को बेहिसाब गुस्सा चढ़ आया और कमर से तलवार खींच होंठों को कंपाते हुए बोले, ‘‘हट जा सामने से, नहीं तो अभी दो टुकड़े कर डालूंगा!!’’
रनबीरसिंह की यह हालत देख खौफ के मारे जसवंत हट गया और जी में समझ गया कि अब किसी तरह यह न मानेगा, खैर देखा जाएगा। यह सोच वहां से रवाना हुआ और जाती वक्त रनबीरसिंह से कहता गया, ‘‘देखिए, मेरा साथ छोड़कर आप जरूर पछताएंगे!’’
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