उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
शहर से बाहर हो चुपचाप सिर नीचा किए हुए एक तरफ रवाना हुए। इसका खयाल कुछ भी न किया कि कहां जा रहे हैं और रास्ता किधर है जसवंत ने चाहा कि समझा-बुझाकर घर की तरफ ले जाएं, मगर रनबीरसिंह ने उसकी एक भी न सुनी, लाचार बहुत सी बातें कहता जसंवत भी उन्हीं के साथ-साथ रवाना हुआ।
लगभग कोस भर के गए होंगे कि एक तरफ से दो सिपाहियों ने जो ढाल तलवार के अलावा हाथ में तोड़ेदार बंदूक भी लिए हुए थे, जिसका पलीता सुलग रहा था, आकर रनबीरसिंह को रोका और अदब के साथ सलाम करके बोले, ‘‘आपसे कुछ कहना है।’’ और तब जसवंत की तरफ देखकर कहा, ‘‘हट जा बे यहां से, बात करने दे!’’
जसवंत ने कहा, ‘‘क्या तुम्हारे कहने से हट जाएं, जन्म से तो हम इनके साथ हैं ऐसी कौन बात है जो यह हमसे न कहते हों?’’
इसके जवाब में एक सिपाही ने बंदूक तानकर कहा, ‘बस हट जा यहां से नहीं तो अभी गोली मारता हूं, जन्म से साथ रहने की सारी शेखी निकल जाएगी!’’
सिपाही की डांट से जसवंत हट गया और कुछ दूर पर जा खड़ा हुआ। दूसरे सिपाही ने अपने जेब से एक चिट्ठी निकालकर रनबीरसिंह को दिखाई जिसके जोड़ पर बड़ी सी मोहर की हुई थी। मोहर पर निगाह कर रनबीरसिंह ने सिपाही की तरफ देखा और चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगे, पढ़ते वक्त आंखों से बराबर आंसू जारी था। जब चिट्ठी खत्म होने पर आई, तब एक दफे उनके चेहरे पर हंसी आई और आंसू पोंछ सिपाही की तरफ देखने लगे।
सिपाही ने कहा, ‘‘बस, अब मैं विदा होता हूं, आप मेरे सामने यह खत फाड़ डालिए।’’ इसके जवाब में रनबीरसिंह ने यह कहकर खत फाड़ के फेंक दिया कि ‘‘मैं भी यही मुनासिब समझता हूं!’’
जब वे दोनों सिपाही वहां से चले गए जसवंतसिंह ने इनके पास आकर पूछा, ‘‘ये दोनों कौन थे और यह खत किसका था?’’
रनबीर–था एक दोस्त का।
जसवंत–क्या नाम बताने में कुछ हर्ज है?
रनबीर–हां, हर्ज है।
जसवंत–अब तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ था!
रनबीर–खैर, अब सही।
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