उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
बीरसेन–मैं समझता हूं कि ऐसा करने के लिए महारानी भी आपको मना करेंगी?
रनबीर–मैं इसमें उनकी राय न लूंगा।
इसी तरह की बात बीरसेन से देर तक होती रही यहां तक कि सूर्य अस्त हो गया। उसी समय किसी आदमी ने खेमे के अन्दर आकर रनबीरसिंह के हाथ में एक चिट्ठी दी।
चिट्ठी पढ़ते ही रनबीरसिंह की अजीब हालत हो गई। इतने दिनों तक हर तरह की मुसीबत और रंज उठाने का खयाल तक उनके जी से जाता रहा और गम की जगह खुशी ने अपना दखल जमा लिया, मगर यह खुशी भी अजीब ढंग की थी। दुनिया में कई तरह की खुशी होती है और हर तरह की खुशी का रंग-ढंग और भाव जुदा ही होता है। यह खुशी जो आज रनबीरसिंह को हुई है निराले ही ढंग की है, जिसके साथ कुछ तरद्दुद का लेख भी लगा हुआ है। चिट्ठी पढ़ने के थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह की आंखें सुर्ख हो गईं, बदन कांपने और रोमांच होने लगा, सांस तेजी के साथ चलने लगी, बेचैनी के साथ इधर-उधर देखने लगे। मगर थोड़ी ही देर में रंगत फिर बदली, वहां से उठ खड़े हुए और बीरसेन से इतना कहते-कहते खेमे के बाहर हुए–अब मैं कल तुमसे मिलूंगा, किसी जरूरी काम के लिए जाता हूं।
बीरसेन खूब जानते थे कि रनबीरसिंह को किस बात की खुशी है या किस बात पर क्रोध हुआ है, वह किसका आदमी है जिसने इन्हें पत्र दिया और अब ये कहां जा रहे हैं इसलिए घोड़ा तैयार करके हाजिर करने के लिए हुक्म देकर वे खुद भी रनबीरसिंह के साथ-साथ खेमे के बाहर आ गए।
घोड़ा हाजिर किया गया, रनबीरसिंह सवार हुए, वह चिट्ठी लानेवाला भी अपने घोड़े पर सवार हुआ जिसे वह खेमे के बाहर एक छोटे से पेट के साथ बांध गया था। जंगल ही जंगल दोनों पश्चिम की तरफ रवाना हुए।
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