उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
बीरसेन ने कहा, ‘‘फौज दस हजार से ज्यादे नहीं है और उसका सेनापति यही ताबेदार आपके सामने हाजिर है।’’
रनबीर–इसमें ज्यादे फौज की जरूरत ही क्या है?
बीरसेन–आपका कहना ठीक है मगर वह बड़ा ही कट्टर है, और इतने से ज्यादे लड़ाकों का बंदोबस्त कर सकता है।
रनबीर–अफसोस, तुम्हारी हिम्मत बहुत छोटी मालूम होती है।
बीरसेन–मेरी हिम्मत जो कुछ है और होगी यह तो मौके पर आपको मालूम ही होगा मगर आप खुद इसे सोच सकते हैं कि बेसरदार की फौज कहां तक काम कर सकती है और मेरा सरदार किस ढंग का है! हां, आज आपकी ताबेदारी से अलबत्ते हम लोगों का हौसला दूना हो रहा है और बहुत-सा गुस्सा भी मिजाज को तेज कर रहा है।
पांच दिन तक धीरे-धीरे बराबर फौज इकट्ठी होती रही और रनबीरसिंह अपने मनमाफिक उसका इंतजाम करते रहे। छठे दिन उनकी फौज पूरे तौर पर तैयार हो गई और तब रनबीरसिंह ने बीरसेन से कहा, ‘‘अब बालेसिंह के पास दूत भेजना चाहिए।’’
बीरसेन–मेरी समझ में तो एकाएक उसके ऊपर चढ़ाई कर देना ही ठीक होगा।
रनबीर–सो क्यों?
बीरसेन–क्योंकि हमारी नीयत का हाल अभी तक उसे कुछ भी मालूम नहीं और वह बिलकुल बैठा है, ऐसे समय में उसको जीतना कोई मुश्किल न होगा।
रनबीर–नहीं, नहीं, ऐसा कभी न सोचना चाहिए, हम लोग धोखे की लड़ाई नहीं लड़ते!
बीरसेन–बालेसिंह और उसकी फौज बड़ी ही कट्टर है, महारानी के पिता को उसने तीन दफे लड़ाई में जीता और आज तक हमारी महारानी का हौसला कभी न पड़ा कि उसका मुकाबला करें और इसी सबब से उन्होंने कैसी-कैसी तकलीफें उठाईं सो भी आपको मालूम ही हो चुका है।
रनबीर–जो हो, मगर मैं तो उससे कह बद के लडूंगा।
|