उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीरसिंह को भला नींद क्यों आने लगी थी तरह-तरह के खयाल दिमाग में पैदा होने लगे, कभी तरददुद, कभी रंज, कभी क्रोध और कभी खुशी, इसी हालत में सोचते-विचारते रात बीत गई, सवेरा होते ही एक लौंडी पहुंची और हाथ जोड़कर बोली, ‘‘अगर तकलीफ न हो तो मेरे साथ चलिए!’’
रनबीरसिंह तो यह चाहते ही थे, तुरंत उठ खड़े हुए और लौंडी के साथ-साथ उसी पत्तोंवाले घेरे में गए जिसके अंदर पत्तों ही की कुटी बनी हुई थी।
इस समय ऐसे जंगल में पत्तों की इस कुटी को ही अच्छी-से-अच्छी इमारत समझना चाहिए, जिसमें खासकर रनबीरसिंह के लिए, क्योंकि इसी झोपड़ी में आज उन्हें एक ऐसी चीज मिलनेवाली है जिससे बढ़ के दुनिया में वह कुछ भी नहीं समझते, या ऐसा कहना ठीक होगा कि किसी चीज पर उनकी जिंदगी का फैसला है। इसके मिलने ही से वह दुनिया में रहना पसंद करते हैं, नहीं तो मौत ही उनके हिसाब से बेहतर है।
और वह चीज क्या है? महारानी कुसुम कुमारी!! जैसे ही रनबीरसिंह उस घर के अंदर जाकर झोंपड़ी के पास पहुंचे कि भीतर से महारानी कुसुम कुमारी उनकी तरफ आती दिखाई पड़ी।
अहा, इस समय की छवि भी देखने ही लायक है! बदन में कोई जेवर न होने पर भी उनके हुस्न और नजाकत में किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा था। सिर्फ सफेद रंग की एक सादी साड़ी पहने हुए थीं, जिसके अंदर से चंपे का रंग लिए हुए गोरे बदन की आभा निकल रही थी, सिर के बाल खुले हुए थे जिसमें से कई घूंघरवाली लटें गुलाबी गालों पर लहरा रही थीं, काली-काली भौहें कमान की तरह खिंची हुई थीं, जिनके नीचे की बड़ी-बड़ी रतनार मस्त आंखें रनबीरसिंह की तरफ प्रेम बाण चला रही थीं।
पाठक, हम इनके हुस्न की तारीफ इस मौके पर नहीं करना चाहते क्योंकि यह कोई श्रृंगार का समय नहीं, बल्कि एक वियोगिनी महारानी के ऐसे समय की छवि है जबकि खदेड़ा हुआ वियोग देखते-देखते उनकी आंखों के सामने से भाग रहा है। आज मुद्दत से उन्होंने इस बात पर ध्यान भी नहीं दिया कि श्रृंगार क्या होता है या गहना जेवर किस चिड़िया को कहते हैं, सुख का नाम ही नाम सुनते हैं या असल में वह कुछ है भी। हां, आज उनको मालूम होगा कि चीज का मिलना कैसा आनंद देता है जिसके लिए वर्षों रो-रोकर बिताया हो और जीते जी बदन को मिट्टी मान लिया हो।
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