उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
यह नक्कारे की आवाज कहां से आई? क्या मेरी फौज किसी से लड़ने के लिए तैयार हुई है? मगर मैंने तो अपनी फौज को ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया! क्या मेरा सेनापति बीरसेन, फौज लेकर लौट आया? लेकिन अगर लौट ही आया तो नक्कारे पर चोट देने की क्या जरूरत थी? लो फिर आवाज आई! मगर वह आवाज बहुत दूर की मालूम होती है!!
इन सब बातों को सोचती हुई महारानी ने सिर उठाया और इधर-उधर देखने लगी। इतने ही में एक लौंडी बदहवास दौड़ी हुई आई और घबराहट की आवाज में डरती हुई बोली, ‘‘दीवान साहब यह खबर सुनाने के लिए हाजिर हुए हैं कि बालेसिंह की फौज शहर के पास आ पहुंची जिसका मुखिया वही दुष्ट जसवंत मुकर्रर किया गया है!’’
यह खबर कुछ ऐसी न थी जिसके सुनने से बेचैनी न हो, जिसमें बेचारी कुसुम कुमारी जैसी औरत के लिए! वह भी इस दशा में कि उसका प्यारा रनबीर जिसे जान से ज्यादे समझे हुए है उसकी आंखों के सामने दुश्मन के हाथ से जख्मी होकर बेहोश पड़ा है और उसकी फौज एक दूसरे ही ठिकाने दूसरी फिक्र में डेरा डाले पड़ी है जो यहां से लगभग पंद्रह कोस के होगा।
दीवान को बुलाकर सब हाल सुना, मगर सिवाय इसके और कुछ न कह सकी कि जो मुनासिब समझो बंदोबस्त करो, मैं तो इस समय आप ही बदहवास हो रही हूं, क्या राय दूं?
बेचारे नेकदिल दीवान ने जो कुछ हो सका बंदोबस्त किया, मगर यह किसे उम्मीद थी कि यकायक बालेसिंह फौज लेकर चढ़ आवेगा और खबर तक न होने पावेगी। इस छोटे से शहर के चारों तरफ बहुत मजबूत और ऊंची दीवार थी, जगह-जगह मौके-मौके पर लड़ने तथा गोली बल्कि तोप चलाने तक की जगह बनी हुई थी और बाहर चारों तरफ खाई भी बनी हुई थी जिसमें अच्छी तरह से जल भरा हुआ था मानों एक मजबूत किले के अंदर यह शहर बसा हुआ हो। महारानी की कुछ ज्यादे फौज न थी मगर इस किले की मजबूती के सबब दुश्मनों की कलई जल्दी लगने नहीं पाती थी। कह सकते हैं कि अगर इस किले के अंदर गल्ले की कमी न हो तो इसका फतह करना जरा टेढ़ी खीर है।
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