उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसवंतसिंह बोले, ‘‘मुझे यकीन नहीं आता कि यह इस पृथ्वी की कोई औरत है। जरूर यह कोई देवकन्या या अप्सरा होगी, इस दुनिया में तो ऐसी खूबसूरती कभी किसी ने देखी नहीं।’’
रनबीर–ऐसी बात नहीं है और जरूर तुम मुझे धोखा दे रहे हो। खोजने से जरूर मैं इसे देख सकता हूं। नहीं-नहीं, अब खोजना क्या सामने ही तो बैठी है, इसे छोड़कर अब मैं कहां जा सकता हूं? अहा, किस प्रेम से हाथ जोड़े है। (तस्वीर का हाथ पकड़ के) ऐसा न होगा, तुम हाथ न जोड़ो, यह काम तो मेरा है, मैं तुम्हारे पैरों पर सिर रखता हूं। (पैरों पर सिर रखकर) कहो तो सही रो क्यों रही हो? क्या मुझसे खफा हो गई हो? भला कुछ तो बोलो, मैं कसम खाकर कहता हूं कि अब कभी तुमसे अलग न होऊंगा, मुझसे कोई कसूर हो गया हो तो उसे माफ करो।
जसवंत–हैं हैं! यह आप क्या कर रहे हैं? क्या भूल गए कि यह पत्थर की मूर्ति है?
रनबीर–(चौंककर) क्या कहा? पत्थर की मूर्ति! हां, ठीक तो है।
रनबीरसिंह चुप हो गए और एकटक उस मूरत की तरफ देखने लगे। बहुत देर के बाद जसवंतसिंह ने फिर टोका, ‘‘रनबीरसिंह बैठे क्या हो, उठो आओ इधर-उधर घूमे, चलो किसी को ढूंढ़ें, कुछ पता लगावें जिसमें मालूम हो कि यह बगीचा किसका है और इन मूर्तियों को बनानेवाला कौन है। इस तरफ बैठे रहने से क्या काम चलेगा?’’
रनबीरसिंह ने जसवंतसिंह की तरह देखकर कहा, ‘‘भाई, मुझे छोड़ दो, क्यों तकलीफ देते हो, तुम जाओ देखो, खोजो, मेरे बिना क्या हर्ज होगा?’’
जसवंत–आखिर कब तक बैठे रहिएगा?
रनबीर–जब तक यह खुश न होंगी और हंसेंगी नहीं।
जसवंत–क्या इस पत्थर की मूरत में जान है जो आप इसे मनाने बैठे हैं?
रनबीर–तुम क्यों मुझे तंग कर रहे हो, जाओ अपना काम करो, मैं यहां से न उठूंगा!
जसवंतसिंह जी में सोचने लगे कि रनबीरसिंह इस वक्त अपने होशहवाश में नहीं हैं, इस औरत का इश्क (जिसकी यह मूरत है) इनके सिर पर सवार हो गया है, एकाएक उतारने से नहीं उतरेगा।
इसी झगड़े में दिन दोपहर से ज्यादे आ गया, नहाने-धोने खाने-पीने की कुछ भी फिक्र नहीं। जसवंतसिंह सोचने लगे, ‘‘अगर रनबीरसिंह को कभी अपनी सुध भी आई और कुछ खाने को मांगा तो क्या दूंगा? इस बाग में कोई ऐसा पेड़ भी नहीं है जिसके फलों से पेट भरने की उम्मीद हो। अब तो यही ठीक होगा कि पहले, उस गांव से जो पास ही दिखाई देता है चलकर जिस तरह बन पड़े कुछ खाने को लावें।’’
यह सोच रनबीरसिंह को उसी तरह छोड़ जसवंतसिंह उस बाग के बाहर आए और पहाड़ी के नीचे उतर उस गांव की तरफ चले।
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