उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
पत्थर की इन दोनों सुंदर हाव-भाववाली मूर्तियों को देखकर रनबीरसिंह और जसंवतसिंह दोनों बहुत देर तक सकते की सी हालत में चुपचाप तसवीर की तरह खड़े रहे, आंख की पलक तक नीचे न गिरी। आखिर रनबीर ने मुंह फेरा और ऊँची सांस लेकर जोर से कहा– ‘‘ओह, आश्चर्य! यह क्या मामला है! मैं कहां और यह पहाड़ी बाग और मूर्तियां कहा! क्या होनेवाला है? हे ईश्वर! जैसा ही मैं इन बातों से भागता था वैसा ही फंसना पड़ा। मेरी भूल थी जो मैंने यह न सोचा था कि ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि में एक-से-एक बढ़ के सुंदर मर्द और औरत बनाए हैं।
(थोड़ी देर तक चुपचाप उन मूर्तियों की तरफ देखकर) जसवंत, क्या कह सकते हो कि यह किसकी मूरत है और यहां से मेरा देश कितनी दूर होगा?’’
जसवंतसिंह ने कहा, ‘‘इस आश्चर्य को देख मैं सब कुछ भूल गया और तबीयत घबड़ा उठी, अक्ल ठिकाने न रही। मुझे यह कुछ मालूम नहीं कि यह पहाड़ी किस राजधानी में है या हमारा देश यहां से किस तरफ है। अपनी सरहद छोड़े आज चार रोज हो गए, ऐसा भूले कि पूरब पश्चिम का भी ध्यान न रहा, दौड़ते-दौड़ते बेचारे घोड़े भी मर गए। यद्यपि इसमें शक नहीं कि यहां से हमारा देश बहुत दूर न होगा, फिर भी हम लोगों को अब तक इस जगह की कोई खबर न थी! अहा, कैसी सुंदर मूर्ति बनाई है, मालूम होता है कारीगर ने अभी इन मूर्तियों को तैयार करके हाथ हटाया है। यह मर्द की मूरत तो बेशक आपकी है। कोई निशान आप में ऐसे नहीं जिसे इस मूर्ति में न बनाया गया हो, कोई अंग ऐसे नहीं, जो आपसे न मिलते हों, मानो आप ही को सामने बैठाकर कारीगर ने इस मूर्ति को बनाया और रंगा हो। अगर आप चुपचाप इस मूर्ति के पास बैठ जाएं तो मैं क्या आपके माता-पिता भी ताज्जुब में ठिठक के खड़े रह जाएं और यह न कह सकें कि मेरा बेटा कौन है!!’’
रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘अगर यह मूर्ति मेरी है तो यह दूसरी मूर्ति भी जरूर किसी ऐसी औरत की होगी जो इस दुनिया में जीती जागती है। ओह, क्या कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आता, किसने इन दोनों को यहां इकट्ठा किया! क्या तुम बता सकते हो कि वह कौन औरत है जिसकी यह मूर्ति है!!’’
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