उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
यह मकान बैठक की तौर पर सजसजाकर कालिंदी को रहने के दिया गया था। इसके साथ ही सटा हुआ एक दूसरा आलीशान मकान था जिसमें कालिंदी की मां और लौंडियां वगैरह रहा करती थीं। कालिंदी बहुत ही टेढ़ी और जल्दी रंज हो जानेवाली औरत थी इसलिए उसके डर से बिना बुलाए कोई उसके पास न जाता और घंटे-दो घंटे या जब तक जी चाहता वह अकेली ही इस बैठक में रहा करती थी।
कालिंदी शहरपनाह के फाटक पर पहुंची, जहां कई सिपाही संगीन लिए पहरा दे रहे थे। उसने पहुंचने ही जल्द फाटक की खिड़की खोलने के लिए कहा।
एक सिपाही–तुम कौन हो?
कालिंदि–मेरा नाम रामभरोस है, दीवान साहब का खास खिदमतगार हूं, उनकी चिट्ठी लेकर बीरसेन के पास जा रहा हूं, क्योंकि बहुत जल्द उन्हें बुला लाने का हुक्म हुआ है।
सिपाही–तुमने अपनी सूरत क्यों छिपाई हुई है?
कालिंदी–इसलिए कि शायद कोई दुश्मन का आदमी मिल जाए तो पहचान न सके। मगर मुझे देर हो रही है, जल्दी फाटक खोलो, दमभर भी कहीं रुकने का हुक्म नहीं और यह मौका भी ऐसा नहीं है।
पहरेवाले सिपाही ने यह सोचकर कि अंदर से बाहर किसी को जाने देने में कोई हर्ज नहीं है, हमारा काम यही है कि कोई गैर आदमी बाहर से किले के अंदर आने न पावे। खिड़की खोल दी और कालिंदी खुशी-खुशी बाहर हो गई।
बालेसिंह का लश्कर यहां से लगभग डेढ़ कोस की दूरी पर था। घंटेभर में यह रास्ता कालिंदी ने तय किया मगर फौज के पास पहुंचते ही रोकी गई। पहरेवालों के पूछने पर उसने जवाब दिया, ‘‘महारानी कुसुम कुमारी की चिट्ठी लेकर जसवंतसिंह के पास आया हूं, मुनासिब है कि तुममें से एक आदमी मेरे साथ चलो और मुझे उनके पास पहुंचा दो।’’
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