उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
सोलहवां बयान
कालिंदी को पाकर जसवंत बहुत खुश हुआ। सबसे ज्यादे खुशी तो उसे इस बात की हुई कि उसने सोचा कि कालिंदी की सलाह और तरकीब से इस किले को फतह करके कुसुम कुमारी और रनबीर दोनों से समझूंगा।
कालिंदी को अपने खेमे में छोड़ पहरेवालों को समझा-बुझा और महारानी के जासूस को जो गिरफ्तार किया गया था, साथ ले जसवंत घंटा दिन चढ़ते-चढ़ते बालेसिंह के खेमे में पहुंचा। उस समय खेमे के अंदर फर्श पर अकेला बैठा हुआ बालेसिंह सोच रहा था, जसवंत सलाम करके बैठ गया।
बालेसिंह–आइए आइए, मैं यही सोच रहा था कि आपको बुलाऊं तो कुछ हालचाल पूछूं।
जसवंत–मैं खुद हालचाल साथ लिए हुए आ पहुंचा।
बालेसिंह–आपके साथ यह कैदी कौन है?
जसवंत–कुसुम कुमारी का जासूस है, वीरसेन के पास जाता हुआ पकड़ा गया, एक चिट्ठी तलाशी लेने से मिली है, लीजिए पढ़िए।
बालेसिंह–(सिपाहियों की तरफ देखकर) इस कैदी को ले जाकर हिफाजत से रखो। (चिट्ठी पढ़कर) भाई जसवंतसिंह, इस चिट्ठी में जिस सुरंग की राह बीरसेन को बुलाया है कहीं उस सुरंग का पता लगता तो बड़ा ही आनंद होता!
जसवंत–उसका पता मिलना कोई बड़ी बात नहीं, उस तरफ का एक आदमी आज मुझसे आ मिला है।
बालसिंह–हां, मुझे खबर लगी है कि महारानी का कोई आदमी तुम्हारे पास आया है, मगर उस पर औरत होने का शक है।
जसवंत–यह कैसे मालूम हुआ?
बालेसिंह–क्या मैं बेफिकरा हूं, खाकर सो रहना ही जानता हूं? अपने कामकाज में तुमसे ज्यादे होशियार हूं, एक दफे महारानी की चालाकी ने मुझे धोखे में डाल दिया इससे यह न समझना कि बालेसिंह निपट बेवकूफ है, कहिए तो उस औरत का नाम तक बता दूं जो आई है!
|