उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसवंत–आश्चर्य है! मगर भला कहिए तो कि आपको कैसे मालूम हुआ?
बालेसिंह–भैया मेरे, यह न पूछो, मैं अपनी कार्रवाई किसी से कहनेवाला नहीं, अपने बाप से तो कहूं, नहीं, दूसरे की क्या हकीकत है! तुमने जिस काम को हाथ में लिया है उसे करो।
जसवंत–खैर न बताइए, अच्छा तो मैं अपनी फौज साथ लेकर सुरंग की राह किले में जाऊंगा।
बालेसिंह–खुशी से जाओ और किला फतह करो।
जसवंत–मुश्किल तो यह है कि आपने कुल पांच हजार फौज मेरे हवाले की है और पंद्रह हजार अपने कब्जे में रख छोड़ी है।
बालेसिंह–और नहीं तो क्या कुल फौज तुम्हें सौंप दूं और आप लंडूरा बन बैठूं, आखिर मैं भी तो अपने को बहादूर और चालाक लगाता हूं, किले के अंदर ले जाने के लिए क्या पांच हजार फौज थोड़ी है? फिर मैं भी तो तुम्हारे साथ ही हूं!
जसवंत–क्या आप भी सुरंग की राह किले में चलेंगे?
बालेसिंह–नहीं, तुम जाओ, मैं बाहर का इंतजाम करूंगा। अच्छा अब तुम अपनी फिक्र करो और मैं भी नहाने-धोने जाता हूं।
जसवंत वहां से उठकर अपने खेमे में आया और कालिंदी के पास बैठकर बातचीत करने लगा–
कालिंदी–कहिए बालेसिंह से मिल आए?
जसवंत–हां मिल आया।
कालिंदी–मेरे आने का हाल भी उससे कहा होगा!
जसवंत–उसे पहले ही खबर लग चुकी है, बड़ा ही धूर्त है!
कालिंदी–बालेसिंह के पास कुल कितनी फौज है और तुम्हारे मातहत में कितनी फौज है?
जसवंत–बालेसिंह के पास बीस हजार फौज है, मगर मैं पांच ही हजार का अफसर बनाया गया हूं।
कालिंदी–बाकी फौज का अफसर कौन है?
जसवंत–कहने के लिए तो दो-तीन आदमी हैं मगर असल में वह आप ही उसकी अफसरी करता है।
कालिंदी–पांच हजार फौज भी अगर तुम्हें और दे देता तो बड़ा काम निकलता।
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