उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
सामने की एक और कब्र से आवाज आई, ‘‘मैं भी कब्र से निकलता हूं, जल्दी न करना!!’’
जसवंत होशियार हो चुका था, वह बड़े जोर से भागा, मगर कालिंदी की बुरी दशा हो गई। ऊपर से उसे अकेला छोड़ जसवंत के भाग जाने से वह बिलकुल ही आपे में न रही, जोर से चिल्लाकर जमीन पर गिरी और बेहोश हो गई।
जब उसे होश आई अपने को उसी जगह पड़े पाया। सवेरा हो चुका बल्कि सूर्य की किरणों से कालिंदी का बदन पसीज रहा था और गर्मी मालूम होती थी। वह घबड़ाकर उठ बैठी और चारों तरफ देखने लगी। कब्रिस्तान में हर तरफ सन्नाटा था, सवेरा होने की खुशी में फुदकती चिड़ियों और मधुबोलियों से दिल लुभानेवाले खुशरंग पक्षियों के सिवाय किसी आदमजात की सूरत दिखाई नहीं देती थी, हां थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ से बंधा हुआ उसका कसा-कसाया घोड़ा टापों से जमीन खोदता हुआ जरूर दिखाई पड़ रहा था।
दिन निकल आने के कारण कालिंदी का डरा हुआ दिल धीरे-धीरे शांत हो रहा था और कलेजे की धड़कन मिट चुकी थी। भागने के बदले इस समय वह पहरों उसी कब्रिस्तान में बैठी रह सकती थी मगर किसी की बेमुरौवती और खुदगर्जी ने उसके कलेजे को निचोड़ डाला था जिसके सदमे से यह बदहवास हो रही थी।
यह बेमुरौवती और खुदगर्जी जसवंतसिंह की थी। पाठक भूले न होंगे कि उस दुष्ट के प्रेम में कितनी मतवाली और अंधी होकर कैसे नाजुक समय में महारानी के साथ कितना नीच व्यवहार करके कालिंदी घर से निकल जसवंत के पास गई थी और उससे मिलकर कितनी प्रसन्न हुई, थी मगर आज उसकी उम्मीदें बिलकुल जाती रहीं और उसके बुरे कर्मों का फल बड़ा भयानक होकर मिलता हुआ उसे दिखाई पड़ा। बदकार औरतों का दिल एक तरह पर कभी स्थिर नहीं रहता जिसका नमूना इस दुष्टा ने अच्छी तरह दिखलाया। यह सदमा उससे किसी तरह बर्दाश्त न हुआ और वह सन्नाटे के आलम में ऊंचे स्वर में बोल उठी– ‘‘अफसोस! मैंने बहुत ही बुरा किया! हाय, दुष्ट जसवंत मुझे कैसी बुरी अवस्था में छोड़कर अपनी जान लेकर भाग निकला! मुझे यह उम्मीद न थी। वह बड़ा ही कमीना और मतलबी है, मौका पड़े तो वह मेरी जान लेकर भी अपना मतलब साधने से बाज आनेवाला नहीं! मालती ने सच कहा था! हाय मैंने बहुत बुरा किया! अब न तो इधर की रही और न उधर की! मगर भला रे दुष्ट, देख मैं तुझसे कैसा बदला लेती हूं!!
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