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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

जसवंत–तुम्हारी बात पर मुझे पूरा विश्वास है, मगर मैं यह पूछता हूं कि तुम्हें क्योंकर निश्चय हुआ कि यही उस सुरंग का फाटक है जिसका दूसरा सिरा किले के अंदर जाकर निकला है?

कालिंदी–मैंने अपने बाप की जुबानी सुना है और दो-तीन दफे उन्हीं के साथ यहां आई भी हूं।

जसवंत–क्या तुमने इस दरवाजे को कभी खुला हुआ भी देखा है?

कालिंदी–नहीं।

जसंवत–तो हो सकता है कि तुम्हारे बाप ने तुमसे झूठ कहा हो और बच्चों की तरह फुसला दिया हो!

इसी समय एक तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं, बच्चों की तरह नहीं फुसलाया है बल्कि ठीक कहा है!’’

अभी तक जसवंत और कालिंदी बड़ी दिलावरी से बातचीत कर रहे थे मगर अब इस आवाज ने जिसके कहने वाले का पता नहीं था, इन्हें बदहवास कर दिया। घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगे मगर कोई नजर न पड़ा। इतने में दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अगर अब भी निश्चय न हुआ हो तो मेरे पास आओ!’’

साफ मालूम पड़ता था कि यह आवाज किसी कब्र में से आई है। जसवंतसिंह के रोगटे खड़े हो गए, कालिन्दी थर-थक कांपने लगी, जवांमर्दी और दिलावरी हवा खाने चली गई।

फिर आवाज आई, ‘‘किसी कब्र को खोद के देख तो सही मुर्दे गड़े हैं या नहीं?’’ साथ ही इसके दूसरी तरफ से खिलखिलाकर हंसने की आवाज आई।

अब तो इन दोनों की विचित्र दशा हो गई, बदन का यह हाल कि मानों जड़ैया बुखार चढ़ गया हो, भागने की कोशिश करने लगे मगर पैरों की यह हालत थी कि जैसे किसी ने नसों से खून की जगह पारा भर दिया हो, हिलाने से जरा भी नहीं हिलते। इन दोनों के घोड़े यहां से थोड़ी ही दूर पर थे मगर इन दोनों की यह हालत थी कि किसी तरह वहां तक पहुंचने की उम्मीद न रही।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा, कहीं से कोई आवाज न आई, इन दोनों ने मुश्किल से अपने हवास दुरुस्त किए और धीरे-धीरे वहां से धसकने लगे। जैसे ही एक कदम चले थे कि बाईं तरफ से आवाज आई, ‘‘देखो भागने न पावे!’’ इसके जवाब में किसी ने दाहिनी तरफ से कहा, ‘‘भागना क्या खेल है! बहुत दिनों पर खुराक मिली है!!’’

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