उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
कुछ देर बाद रनबीरसिंह ने सामने की दीवार पर निगाह दौड़ाई और बोले, ‘‘क्या आश्चर्य है! जिधर देखो उधर ही मेरे मतलब की तसवीरें दिखाई पड़ती हैं। प्यारी कुसुम, क्या तुम इन तसवीरों का हाल और जो-जो मैं पूछूं बता सकोगी?’’
कुसुम–जी नहीं।
रनबीर–सो क्यों?
कुसुम–इसीलिए कि इनके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानती।
रनबीर–तब कौन जानता है?
कुसुम–इस समय सबसे ज्यादे जानकर दीवान साहब हैं जिन्होंने मुझे अपने गोद में खिलाया है, मेरे पिता ने इस कमरे की ताली भी उन्हीं के सुपुर्द की थी और अब तक उन्हीं के पास थी, कल मैंने मंगा ली है।
रनबीर–जब दीवान साहब ने तुम्हें गोद में खिलाया है, तो उनसे पर्दा क्यों करती हो?
कुसुम–केवल राज्य नियम निबाहने के लिए, नहीं तो मुझे कोई पर्दा नहीं है।
रनबीर–तो मैं उन्हें यहां बुलवाऊं!
कुसुम–बुलवाइए।
रनबीरसिंह ने बीरसेन की तरफ देखा, वह मतलब समझकर तुरंत दीवान साहब को बुलाने के लिए चले गए। जब तक दीवान साहब न आए तब तक रनबीरसिंह चारों तरफ की तसवीरों को बड़े गौर से देखते रहे जिससे उनके लड़कपन की बहुत सी बातें उन्हें इस तरह याद आ गई जैसे वे सब घटनाएं आज ही गुजरी हों।
थोड़ी ही देर में दीवान साहब भी आ मौजूद हुए। उन्हें देखते ही रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘दीवान साहब, इस कमरे में आने से आश्चर्य ने मुझे चारों तरफ से ऐसा घेर लिया है कि मेरी बुद्धि ठिकाने न रही। लड़कपन से होश सम्हालने तक की बातें मुझे इस तरह याद आ रही हैं जैसे मेरे सामने एक ही दिन में किसी दूसरे पर बीती हों, अब मेरी हैरानी और परेशानी सिवाय आपके कोई नहीं मिटा सकता।’’
दीवान–ठीक है, इन तसवीरों का हाल यहां मुझसे ज्यादे कोई दूसरा नहीं जानता, क्योंकि ये सब मेरे सामने बल्कि मेरी मुस्तैदी में बनवाई गई हैं और इसकी ताली भी बहुत दिनों तक बतौर मिल्कियत के मेरे ही अमानत रही है।
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