उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–तो आप मेहरबानी करके इन तसवीरों का हाल ठीक-ठीक मुझसे कहें।
दीवान–बहुत खूब! (कुसुम कुमारी की तरफ देखकर) आप भी मेरी बातों को गौर से सुनें क्योंकि इनका जानना जितना जरूरी रनबीरसिंह के लिए है उतना ही आपके लिए भी।
कुसुम–बेशक ऐसा ही है और उनसे ज्यादे सुनने की चाह मुझे है क्योंकि इसके पहले मैं एक दफे और भी इस कमरे में आ चुकी हूं और तभी से हैरानी मेरा आंचल पकड़े हुए है।
दीवान–(रनबीरसिंह की तरफ देखकर) अच्छा तो इन तसवीरों का हाल आप अलग-अलग मुझसे पूछेंगे या मैं खुद कह चलूं?
रनबीर–उत्तम तो यही होगा कि आप कहते जाएं और मैं सुनता जाऊं।
दीवान–बहुत अच्छा ऐसा ही होगा। (बीरसेन की तरफ देखकर) तुम भी ध्यान देकर सुनो।
बीरसेन–जरूर सुनूंगा।
दीवान साहब ने हाथ के इशारे से बता-बताकर यों कहना शुरू किया, ‘‘पहले इन दो बड़ी मूरतों पर ध्यान दीजिए जिनमें से एक को आप बखूबी जानते हैं क्योंकि वह आपके पिता इंद्रनाथ की मूरत है और मूरत जिसकी है उसे भी आप कई दफे देख चुके हैं, वह कुसुम कुमारी के पिता कुबेरसिंह की मूरत है। ये दोनों आपस में लड़कपन ही से सच्चे और दिली दोस्त थे मगर मैं इन दोनों का किस्सा पीछे कहूंगा पहले चारों तरफ दीवारों पर खिंची हुई तसवीरों का हाल कहता हूं बल्कि इसके भी पहले यह कह देना मुनासिब समझता हूं (दोनों मूरतें दिखाकर) इन दोनों दोस्तों ने अपनी जिंदगी ही में आपकी शादी कुसुम कुमारी के साथ कर दी थी। इस बात को कुसुम कुमारी बखूबी जानती है बल्कि यहां के सैकड़ों आदमी जानते हैं। आप भी अपनी शादी का हाल भूले न होंगे, मगर आप खयाल करते होंगे कि आपकी शादी किसी दूसरी लड़की से हुई थी क्योंकि कुसुम की सूरत किसी कारण से आपको दिखाई नहीं गई थी।’’
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