धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
जानकारी बढ़ाना स्वाभाविक
वृत्ति है। जो विद्या पड़ता है, स्वाध्याय करता है, सत्संग करता है ग्रन्थ
सुनता है, तीर्थयात्रा करता है, वह पुण्यात्मा है। जो अपनी बुद्धि को आगे
न बढ़ने देने के लिए कसम खाकर अन्ध-विश्वास एवं कूप-मण्डूक की काल कोठरी
में ताला बन्द करके बैठा है वह पापी है। इसी प्रकार वह भी पापी है जो
ज्ञान की लालसा में अगम्य स्थानों पर जाता है। अनुचित तर्क करता है, न
जानने योग्य, गुप्त एवं दूषित बातों को जानने का प्रयत्न करता है। अभाव
बुरा है अति भी बुरी है।
सौन्दर्य प्रियता सभी
स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाओं को होती है। सफाई, स्वच्छता, सजावट, आकर्षण,
सुन्दरता का प्रदर्शन इस इच्छा को किसी भी प्रकार दबाया नहीं जा सकता।
संसार को मिथ्या कहने वाले भी ईश्वर की मूर्तियों को नाना सजावट
श्रृंगारों से सुसज्जित करके नेत्रों को तृप्त करते हैं। धार्मिक
कर्मकाण्डों में हर काम सजावट से भरा-पूरा होता है। सोलह संस्कारों में से
एक-एक भी ऐसा नहीं है जिसमें संस्कार होने वाले व्यक्ति की, उस स्थान की,
वहाँ की वस्तुओं की अनेक बहानों से सजावट न होती हो। रंग-बिरंगे चौक
पूरना, कलश, रोली, अक्षत, आम्रपत्र, शुभ वस्त्र आदि की सजावटें तो धार्मिक
कर्मकाण्डों का प्रधान अंग बन चुकी हैं। कला प्रेमी व्यक्ति शौच,
स्वच्छता, सात्विक सजावट से रहने वालों तक का समाज में विशेष आदर होता है।
वेश-भूषा को देखते ही उसकी पोजीशन समझ में आ जाती है। घर, कमरा, फर्श,
कपड़े, टोपी, काम में आने वाली वस्तुऐं किसी मनुष्य के टुच्चेपन एवं महत्व
को चिल्ला-चिल्लाकर बताते रहते हैं। इससे तो कुवेशभूषा वालों, अस्त-व्यस्त
सजावट रखने वालों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। जो लोग सजावट में
अति करते हैं, फैशन में ही डूबे रहते हैं योग्यता और स्थिति का उल्लंघन
करने अत्यधिक टीप-टॉप करते हें वे भी तिरस्कृत होते हैं क्योंकि अभाव की
भांति अति को भी पापी माना जाता है।
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