उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
तुमने अपने को बचाये रखने के लिए बहुत-सी बोगस
थ्योरियाँ गढ़ रखी हैं जिन्हें तुम भी नहीं मानती हो, मैं जानता हूँ! और
भुवन से तुम्हारे व्यवहार में यह मुझे स्पष्ट दीखा कि तुम्हारी सब
थ्योरियाँ केवल एक रक्षा कवच हैं, ताबीज़ की तरह तुमने उन्हें बाँध रखा है
क्योंकि तुम्हारी सारी प्रवृत्तियाँ उनके विरुद्ध हैं और तुम स्वयं अपनी
प्रवृत्तियों से डरती हो। क्यों डरती हो? जो सहज प्रवृत्तियाँ हैं; वे
कल्याणकारी हैं। और तुम्हारी प्रवृत्तियाँ और मेरी प्रवृत्तियाँ समानान्तर
हैं, रेखा! भुवन दूसरी दुनिया का आदमी है। हो सकता है कि मुझ से ऊँचा,
अच्छी दुनिया का ही हो, पर वह दूसरी दुनिया है, दूसरा स्तर है, और वह स्तर
हमारे-तुम्हारे स्तर को कहीं नहीं काटता। क्यों तुम और अपनी प्रतारणा करती
हो-क्या तुम्हारे जीवन में पहले ही यथेष्ट प्रतारणा नहीं रही?
रेखा,
तुम बार-बार कह देती हो कि तुम मुझसे बड़ी हो, पर यह भी एक कवच है
तुम्हारा। उम्र में भी तुम मुझसे दो-तीन बरस छोटी तो हो ही; वैसे भी किस
बात में बड़ी हो? यों मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, सदा करूँगा, तुम्हारे
पैर चूमूँगा, यह बात दूसरी है; पर कौन-सा अनुभव तुम्हें इतनी दूर ऊपर उठा
ले जाता है? मैं बच्चा नहीं हूँ, रेखा, दो बच्चों का पिता हूँ। क्लेश तुम
ने भोगा है अवश्य, पर मैं उससे अछूता होऊँ यह नहीं है। और विवाह के बाद
मैं यूरोप घूमा हूँ - युद्ध के आसन्न संकट से निराश, नीति-हीन
प्रतिमान-हीन यूरोप - और उसमें जो अनुभव मैंने पाये हैं वे - क्षमा करना,
एक विवाह और एक विच्छेद से कहीं अधिक तीखे, कटु और पका देने वाले हैं...।
तभी तो, लौटकर फिर मैं गृहस्थी में खप न सका; घर गया, कुछ रहा; हाँ, पत्नी
के साथ सोया भी और उससे एक बच्चा भी पैदा किया; पर इन सब अनुभवों ने उस
गर्म कड़ाहे को और तपाया ही, उस तेल को और तपाया ही जिसमें जलकर मैं आज वह
बना हूँ जो मैं हूँ। तुमने एक बार कहा था कि तुम्हारे आसपास दुर्भाग्य का
एक मण्डल है, पर मैं देखता हूँ, जानता हूँ, अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी
आत्मा के घावों की मरहम हो, तुम्हारा साया मेरे लिए राहत है, और - यदि तुम
वह मुझे दे सको तो - तुम्हारा प्यार मेरे लिए जन्नत है...मैं बड़ा लालची
रहा हूँ, जीवन से मैंने बहुत माँगा है, छोटी चीज़ कभी नहीं माँगी, बड़ी से
बड़ी माँगता आया हूँ, मैं सच कहता हूँ कि इससे आगे मेरी और कोई माँग नहीं
है, न होगी। यह मेरी सारी चाहनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं की
अन्तिम सीमा है, मेरे अरमानों की इति, मेरी थकी प्यासी आत्मा की अन्तिम
मंजिल। रेखा, तुममें असीम करुणा है, तुम तत्काल प्यार नहीं दे सकती तो
करुणा ही दो, मुक्त करुणा, फिर उसी में से प्यार उपजेगा।
|