उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
मैं
लालची हूँ, मैं स्वार्थी भी हूँ। पर इतना स्वार्थी नहीं, रेखा, कि इस बात
को मैंने तुम्हारी ओर से न सोचा हो। तुम अकेली हो, मुक्त हो, नौकरियाँ
करती हो। पर कहाँ तक? किसलिए? मुक्ति आज नारी चाहती है, चलो ठीक है,
यद्यपि आज मुक्त कोई नहीं है और है तो इस महायुद्ध के बाद शायद वह भी न
रहेगा, पर नौकरी तो कोई नहीं चाहता? मुक्ति के लिए नौकरी, नौकरी के लिए
मुक्ति, दोहरा धोखा है। सिक्योरिटी हर कोई चाहता है, और उसीमें मुक्ति है।
पुरुष के लिए भी, और स्त्री के लिए और भी अधिक।
इन बातों की यहाँ
क्या रेलेवेंस है? बताता हूँ। हेमेन्द्र (हम दोनों के बीच कभी उसका नाम
नहीं लिया गया है, आज ले रहा हूँ, लाचारी है) मलय में जिसके साथ रहता है
उसके या और किसी के साथ शीघ्र ही शादी करना चाहेगा - या न चाह कर भी करेगा
क्योंकि इसके बग़ैर उसका वहाँ अधिक दिन रहना सम्भव नहीं होगा - जंग दोनों
को अलग कर देगा और हेमेन्द्र को यहाँ ला फेंकेगा या जेल में डाल देगा। और
इसके लिए वह तुम्हें डाइवोर्स करेगा ही। उसके लिए सबसे आसान तरीका यह होगा
कि धर्म-परिवर्तन कर के डाइवोर्स माँगे। तुम न धर्म-परिवर्तन करोगी, न
उसके पास जाओगी, बस। तुम डाइवोर्स माँगती तो वह न देता और शादी के लिए
माँगती तो और भी नहीं, तुम्हें वह गुलाम रखकर सताना ही चाहता, पर अपनी
सुविधा के लिए वह सब करेगा।
और मैं? तुम्हारा सिविल विवाह था,
तुम्हारी बात और है। मेरी स्थिति दूसरी है। पर मैं अपने विवाह को विवाह
कभी नहीं मान सका हूँ। ऐसा विवाह सन्तान को जायज़ करने की रस्म से अधिक
कुछ नहीं है, न हो सकता है। मैं अलग हूँ, अपने को अलग और मुक्त मानता हूँ,
और मेरा परिवार भी मुझसे न कुछ चाहता है, न कुछ अपेक्षा रखता है सिवाय
खर्चे के जो मैं भेजता हूँ और भेजता रहूँगा। सच रेखा, मुझे कभी उस बेचारी
स्त्री पर बड़ी दया आती है। बल्कि उसका किसी से प्रेम हो, वह किसी से शादी
करना चाहे, तो मैं कभी बाधा न दूँ बल्कि भरसक मदद करूँ। ख़ुद जाकर
कन्यादान कर आऊँ, जो कुमारी नहीं है उसे कन्या कहना असम्मत तो नहीं है न?
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