उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“ठीक है, वही सही। मैं तो कालेज में ठहरा हूँ, एक प्रोफ़ेसर के साथ।”
“रहेंगे?”
“यही चार-छः दिन रहूँगा। यहाँ से सामान भेजकर फिर कश्मीर जाऊँगा।”
“हाँ-चन्द्रमाधव ने लिखा था” कहकर रेखा सहसा चुप हो गयी। एक बोझल मौन उनके
बीच में आकर जम गया।
ताँगे पर सवार होकर रेखा ने फिर पूछा, “भुवन जी, एक स्वार्थ की बात कहूँ?”
“क्या?”
“मैं
दो-चार दिन यहाँ रुक जाऊँ, तो आप अपना कुछ समय मुझे देंगे? दिल्ली में
मेरे परिचित तो बहुत हैं, पर वह खुशी की बात अधिक है या डर की, नहीं
जानती!”
“मुझे तो यहाँ कोई काम नहीं है; दो-एक व्यक्तियों से ही मिलता-जुलता हूँ;
मेरे पास बहुत समय है।”
“उबाऊँगी
नहीं, यह वचन देती हूँ।” रेखा हँस दी। “ऊब आने से पहले ही हट जाऊँगी-मुझे
और कुछ तो नहीं आता पर ऊब के पूर्व-लक्षण खूब पहचानती हूँ। कहूँ कि मेरे
जीवन का मुख्य पाठ यही रहा है-ऊब की सात सीढ़ियाँ!”
“वह खतरा
मुझे नहीं है, मैं ही उबा सकता हूँ; क्योंकि मेरे पास कहने को बहुत कम है;
अधिक बात जिस विषय की कर सकता हूँ वह स्वयं उबानेवाला है-विज्ञान!”
“भुवन जी, आप अपने बारे में बात करते हैं-करते रहे हैं?”
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