उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“नहीं तो-या बहुत कम। वह भी कोई विषय है?”
“तो
ठीक है; कहना चाहिए कि वह नया विषय है-मेरे लिए तो है ही, आपके लिए भी
है!” रेखा की आँखें हँसी से चमक उठी। “और मैं वायदा करती हूँ, इस विषय से
नहीं उबूँगी-आप ही जब छोड़ें तो छोड़ें। बल्कि मैं फिर-फिर लौट आऊँ तो आप
बुरा तो न मानेंगे?”
भुवन ने थोड़ा-सा सकुचाते हुए, यद्यपि कुछ
तोष भी पाकर, कहा, “न-नहीं तो; पर मैं फिर आपको वार्न करता हूँ, वह विषय
बड़ा नीरस है, और कहीं पहुँचाता नहीं।”
“मैं तो पहले ही बता चुकी
हूँ कि कहीं पहुँचने का लोभ ही मुझे नहीं है-ऐसी यात्रा पर हूँ जो कहीं
पहुँचती ही नहीं, अन्तहीन है, यही क्या कहीं पहुँच जाना नहीं है?”
“यह भी एक दृष्टिकोण हो तो सकता है” कह कर भुवन निरुत्तर-सा कुछ सोचने लग
गया।
कश्मीरी
गेट में वाई. डब्ल्यू. में सामान उतार कर दुमंजिले पर पहुँचाया गया; भुवन
को 'लाउंज' में बिठा कर रेखा ने कहा, “आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूँ” और
सामान के साथ अपने कमरे की ओर चली गयी।
जब तक वह मुँह-हाथ धोकर
लौट कर आये, तब तक मन बहलाने के लिए भुवन कुछ ढूँढ़ने लगा - इसलिए भी कि
जब-तब कोई स्त्री आती और लाउंज में उसे देख कर लौट जाती; कोई कौतूहल से
उसे घूर कर, कोई सकपका कर - और वह खाली बैठने के संकोच से मुक्त होना
चाहता था। पर कुछ भी उसे नहीं मिला। एक ताक में कुछ पत्र रखे हुए थे, उसने
निकाले। 'लेडीज़ होम जर्नल', 'वोग' 'वुमन एण्ड होम' - कहीं उसका मन रमा
नहीं। वह सब पुनः वहीं रखने को था कि ताक के भीतर एक छोटे आकार का पत्र
उसे दीखा, उसने खींच कर निकाला : 'मेन ओनली'। उसने मुस्करा कर उसे वहीं
रखकर ऊपर सब दूसरे पत्र लाद दिये।
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