उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पास की बेंच पर रेखा बैठ गयी।
“संकोच
होता भी है, नहीं भी होता। कहते हैं न कि अच्छा स्वप्न कह देने से उसकी
सम्भावना कम हो जाती है, उसी तरह बुरा सपना कहने से उसका भी बोझ हल्का हो
जाता है। मैं जब भी अपनी बात कहती हूँ या कहने का संकल्प करती हूँ तो उसकी
छाया की एक परत कम हो जाती है, सोचती हूँ कि कह-कह कर ही उसे कह डाला जा
सकता है-उससे मुक्त हुआ जा सकता है-पर कहने का निश्चय करना ही बड़ा कठिन
होता है क्योंकि....” रेखा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
“मैं समझता हूँ”, भुवन ने कहा, “आग्रह नहीं करूँगा। आप.....”
“नहीं, आपसे शायद कह सकूँगी - कहना चाहूँगी।”
थोड़ी
दूर पर पद-चाप सुनायी दी-धीमी, फिर सहसा स्पष्ट-घास पर से सड़क पर। ठेठ
खड़ी बोली के स्वर ने कहा, “बाबूजी, यहाँ नहीं बैठ सकते।”
“क्यों?”
“बाबू जी, दस बजे के बाद इद्र बैट्ठणे का हुकुम नहीं है-अब तो साड्ढे दस
हो लिए।”
“अच्छा, अच्छा जाते हैं।”
चौकीदार बग़ल से लाठी टेककर कुछ दूर पर खड़ा हो गया।
रेखा उठ खड़ी हुई। “चलिए।”
|