उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कुदसिया
बाग़ के दो खण्ड हैं, बीच में अलीपुर रोड़ पड़ती है। दोनों निकल कर दूसरे
खण्ड में चले गये। सागू के पेड़ों के चिकने सफेद तने मानो किसी बड़े मण्डप
के स्तम्भ थे, जिसमें रातरानी की दिग्विमूढ़ गन्ध भटक रही थी। मुख्य वीथी
से हट कर दोनों घास की छहेल पटरी पर टहलने लगे। लेकिन मूड कुछ बदल गया था।
रेखा ने पूछा, “बैठेंगे?”
“बेंचें उधर हैं-बुत के पास।” भुवन के कहा; इसमें इनकार भी नहीं था, कोई
अनुकूलता भी नहीं थी।
खड़ी बोली की व्यापकता प्रमाणित करता हुआ एक स्वर यहाँ भी नेपथ्य में से
बोला, “कौन है?”
“हम है-टहलने आये हैं,” भुवन ने चिकने स्वर में उत्तर दिया।
खड़ा स्वर कुछ कम खड़ा हुआ : “बाबू जी, अब बड़ी देर हो गयी; दस बजे बाग़
बन्द हो जाता है।”
रेखा ने कहा, “द हाउंड्स आफ़ हेवन आर एवरी हेयर!” (स्वर्ग के शिकारी
कुत्ते सर्वत्र हैं।)
स्त्री-स्वर
सुनकर नेपथ्य की वाणी कुछ और भी नरम पड़ कर बोली, “बाबू जी, इतनी रात को
इधर नहीं घूमते; ज़माना ठीक नहीं है। बड़े चोर बदमास फिरे हैं।”
दूर
पर चौकीदार की छायाकृति दीख गयी। भुवन ने कहा, “अच्छा भइया, जाते हैं।
आजकल तो यही वक़्त होता है घूमने का - इतनी गर्मी होती है।”
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