उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“नहीं रेखा जी, मुझे कुछ
पूछना नहीं है।” भुवन ने गम्भीर होकर कहा। “एक बार भी याद दिलाने का कारण
बना, इसी की मुझे बहुत ग्लानि है। आप और कुछ न बताइये, न याद कीजिए।”
कोई
बीस मिनट बाद, दोनों कनाट प्लेस में बैठे धीरे-धीरे काफ़ी पी रहे थे। रेखा
की दृष्टि अब भी खोयी हुई थी। भुवन पर एक अजीब जुगुप्सा-मिश्रित संकोच
छाया हुआ था। रेखा को देखते हुए एक प्रश्न बार-बार उसके मन में उभर आता था
जिससे वह लज्जित हो जाता था; जिसे दबा देने की चेष्टाओं की असफलता, गहरी
आत्म-ग्लानि उसमें भर रही थी...हेमेन्द्र ने कब, कैसी स्थिति में उसे वह
बात बतायी होगी?...
वह साहस करके पूछ ही डालता, तो रेखा उस समय
शायद बता भी देती। क्योंकि उसकी खोयी हुई दृष्टि उसी स्थिति को देख रही
थी, उसी ग्लानि को मन-ही-मन दुहरा रही थी...।
देर रात को हेमेन्द्र
कहीं बाहर से आया था। रेखा का शरीर अलसा गया था, आँखें थकी थी; पर वह पलंग
के पास की छोटी लैम्प जलाये पढ़ रही थी। लैम्प पर हरे काँच की छतरी थी,
उससे छन कर आये हुए प्रकाश में रेखा का साँवला चेहरा अतिरिक्त पीला दीख
रहा था; बाकी कमरे में बहुत धुँधला प्रकाश था।
हेमेन्द्र के
लौटने पर उससे किसी प्रकार का दुलार या स्नेह-सम्बोधन पाने की आशा उसने न
जाने कब से छोड़ दी थी; वैसा कुछ उनके बीच में नहीं था - उनके निजी जीवन
में नहीं, यों समाज में जो रूप था - पब्लिक चेहरा! - वह दूसरा था। इसलिए
वह उसके लिए तैयार नहीं थी जो हुआ। हेमेन्द्र ने पीछे से आकर बड़े
उतावलेपन से और बड़ी कड़ी पकड़ से उसके दोनों कन्धे पकड़े, उसे उठाते और
उसके कन्धे के ऊपर से अपना मुँह उसके मुँह की ओर बढ़ाते हुए कहा, “मेरी
जान-मेरी जान।”
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