उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
किताब रेखा के हाथ से छूट गयी, सारा कमरा एक बार
थोड़ा डोल गया। सहसा घूमकर, विमूढ़ किन्तु सायास कोमल रखे गये स्वर में
उसने कहा, “हेमेन्द्र”
हेमेन्द्र को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया
हो, वह सहसा रेखा के कन्धे छोड़कर कर पीछे हट गया, फिर उसने कमरे की मुख्य
बत्ती जला दी। थोड़ी देर अजनबी दृष्टि से रेखा को देखता रहा; रेखा की
परिचित किंचित् विद्रूप-भरी मुस्कराहट उसके चेहरे पर आ गयी। बोला, “हलो,
रेखा, सॉरी आइ' म सो लेट-” और पलंग के पास खूँटी की ओर बढ़ गया।
ऐसा
तो रोज होता था। पर आज रेखा यह स्वीकार न कर सकी थी। अभी क्षणभर पहले की
घटना मानो असंख्य तपे हुए सुओं से उसे छेद रही थी-उसे समझना होगा, समझना
होगा...।
रेखा ने हाथ का काफ़ी का प्याला रख दिया कि हाथों का
काँपना न दीखे; फिर ज़ोर से सिर हिलाया कि यह विचार, यह दृश्य उसकी आँखों
के आगे से हट जाये-पर नहीं...।
उसने भी जाकर हेमेन्द्र के कन्धे पकड़ लिए थे और पूछा था, “हेमेन्द्र,
तुम्हें बताना होगा, इसका अर्थ क्या है?”
“और
न बताऊँ तो?” वह विद्रूप की रेखा और स्पष्ट हो आयी थी। फिर सहसा उसने बहुत
रूखे पड़कर, रेखा को धक्का देकर पलंग पर बिठाते हुए कहा था, “लेकिन नहीं,
बता ही दूँ-रोज़-रोज़ की झिक-झिक से पिंड छुटे-पाप कटे! तो सुनो, मैं
तुमसे प्रेम नहीं करता, न करता था। न करूँगा!”
“यह तो बताने की शायद ज़रूरत नहीं है। पर तब मुझसे विवाह क्यों किया था?”
“यह भी जानना चाहती हो! अच्छा। यह भी जानोगी। अब सब जानोगी तुम!”
रेखा जैसे खड़ी होने को हो गयी - फिर बैठ गयी।
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