उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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“क्यों आप ढूँढ़ रहे हैं न कि कल वाली रेखा कहाँ गयी?”
भुवन अवाक् रेखा का मुँह ताक रहा था। उस पर कहीं कोई व्यथा की, चिन्ता की रेखा नहीं थी, जागर की छाया नहीं थी। रेखा ने फिर वही सादी रेशमी साड़ी पहन रखी थी, लेकिन आज बिना किनारे की नहीं, प्योंड़ी के-से मटीले पीले रंग के चौड़े पाड़ वाली, जिसका पीलापन उसके साँवले रंग को एक सुनहली दमक दे रहा था। हाँ, माथे और कनपटियों पर आज उसने कोलोन-जल लगा रखा था, नींबू के फूलों की-सी हल्की महक उससे आ रही थी।
भुवन जैसे पकड़ा जाकर मुस्करा दिया।
“लेकिन अचम्भे की कोई बात नहीं है। मैं क्षण-से-क्षण तक जीती हूँ न, इसलिए कुछ भी अपनी छाप मुझ पर नहीं छोड़ जाता। मैं जैसे हर क्षण अपने को पुनः जिला लेती हूँ।
“तुमने एक ही बार वेदना में मुझे जना था, माँ,
पर मैं बार -बार अपने को जनता हूँ
और मरता हूँ
पुनः जनता हूँ और पुनः मरता हूँ
और फिर जनता हूँ ,
क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ।“*
( * अर्न्स्ट टॉलर)
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