उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने कहा, “रेखा जी, स्वस्थ होइये। चलिए, मैं आपको टैक्सी में पहुँचा
आऊँ-”
रेखा पत्थर हो गयी। “नहीं। मैं ठीक हूँ। पर इस समय आपको यहाँ बिठाना शायद
अन्याय है। आप मुझे यहीं छोड़ जाइये, मैं पीछे चली आऊँगी।”
“यह
तो नहीं हो सकता रेखा जी, चाहे आप की अवज्ञा ही करनी पड़े। पर आपको एकान्त
की ज़रूरत है, यह तो समझ रहा हूँ। तो चलिए, मैं आपको टैक्सी में बिठा देता
हूँ, साथ नहीं जाऊँगा।”
रेखा कुछ नहीं बोली।
भुवन ने बिल
चुकाया और दोनों बाहर आये। रेखा टैक्सी में बैठ गयी, तो भुवन ने मौन
नमस्कार किया। तब रेखा ने बड़े आयास से एक फीकी मुस्कान चेहरे पर लाकर
कहा, “लेकिन भुवन जी, दिस इज़ नाट द एण्ड, आइ होप! कल मैं फिर तीसरे पहर
तैयार मिलूँगी।”
भुवन ने फिर चिन्तित स्वर में पूछा था, “आर यू श्योर यू आर आल राइट? या
मैं चलूँ?”
“नहीं, भुवन जी! ड्राइवर, चलो, कश्मीरी गेट।”
गाड़ी जब सरकी तो रेखा ने फिर भुवन की ओर उन्मुख होकर कहा, “गाड ब्लेस
यू।”
भुवन तनिक विस्मित हुआ, पर तुरन्त सँभल कर बोला, “एण्ड यू।”
टैक्सी
चल दी। तब रेखा पीछे ऐसी गिरी मानो अब नहीं उठेगी, नहीं उठेगी; चारों ओर
से अतल दूरी से असंख्य काले और उजले तारे उसकी ओर बढ़े चले आ रहे हैं,
शून्य का अतल गर्त सिमट कर छोटा हुआ आ रहा है और उसे ऐसे जकड़ लेगा जैसे
लोहे का सन्दूक-और उसी के अन्दर वह घुट जाएगी, नहीं रहेगी, न कुछ हो
जाएगी...स्मरण के टापू...आह, विस्मृति का महामरुस्थल, आह...।
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