उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“यह - यह क्यों?”
“मेरी
ओर से - इसलिए कि तुम शायद फिर न आओ।” रेखा ने जल्दी से मुँह फेर लिया।
भुवन ने सहसा उसकी ओर बढ़कर बायें हाथ के अँगूठे-उँगली के नाखूनों की
चुटकी से उसके ब्लाउज़ का गला तनिक-सा उठाया और दाहिना हाथ बढ़ाकर आर्किड
के फूलों का लच्छा उसके भीतर डाल दिया। बड़े स्निग्ध स्वर से कहा, “पगली
कहीं की!”
फिर बड़ी त्वरा से उसने अपनी पोटली उठायी और बिना लौट कर देखे चला गया।
दो मोड़ पार करके, जैसे कुछ याद कर के वह रुका। छोटा पैकेट उसने खोला।
उसमें रेखा की वह छोटी कापी थी, और वह नीली साड़ी जिसे पहन कर उसने भुवन
के साथ सूर्यास्त का पीछा किया था।
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