उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन : भाग 2
1
दृश्यों
का द्रुत परिवर्तन स्फूर्तिप्रद होता है शायद, लेकिन जहाँ उस परिवर्तन के
साथ रागावस्थाओं का भी उतना ही द्रुत परिवर्तन हो वहाँ स्फूर्ति ही आवश्यक
नहीं है, व्यक्ति चकित-विमूढ़ होकर भी रह जाता है...। काम के दबाव में
उसका मन नौकुछिया अधिक नहीं भागा था - यों भी उसकी प्रवृत्ति पीछे देखने
की नहीं थी, हठात् कभी अतीत की किरण मानस को आलोकित कर जाये वह दूसरी बात
है - पर श्रीनगर की झील और नौकुछिया का अन्तर स्वयं मन पर चोट करता था।
निस्सन्देह श्रीनगर में सब कुछ बड़े पैमाने पर था, बड़ी चौड़ी उपत्यका,
बड़े पर्वत-शृंग, बड़ी झील-बड़े लोग!-पर नौकुछिया एक सुन्दर हरे निर्जन
में जड़ा हुआ छोटा-सा नगीना था, और यह-जनाकीर्ण मग में आभूषणों से लदी
बैठी पुंश्चली स्त्री... क्या हुआ अत्यन्त सुन्दरी है तो? 'पब्लिक
फ्रे॓सेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़!' उसे खुशी ही थी कि श्रीनगर में अधिक समय
नहीं बिताना पड़ेगा, दिल्ली में ही रुके रह जाना बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो
यहाँ वह घबड़ा जाता - और नौकुछिया के बाद तो....! डेढ़ ही दिन उसे वहाँ लगा, इतने में उसकी तैयारी हो गयी। यहाँ से घोड़ों पर सामान लद कर जायेगा, पहलगाँव और वहाँ से तुलियन - चौथे दिन पहुँच जायेगा। वह पहलगाँव में प्रतीक्षा करेगा, तम्बू पहलगाँव से ही तुलियन ले जाने होंगे - उसके लिए उसने नये खानसामा को आगे भेज दिया था।
लेकिन अपना आवश्यक सामान लेकर जब वह पहलगाँव की मोटर पर पहुँचा तब अचकचा कर रह गया। मोटर के बानेट के सहारे रेखा खड़ी थी।
मुस्करा कर बोली, “नमस्कार!”
“नमस्कार। तुम.....”
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book