उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“मैं आपसे एक दिन पहले यहाँ पहुँच गयी - आप दिल्ली ही रह गये, मैं सीधी
इधर चली आयी।”
“लेकिन...”
“आप
भूलते हैं, मैं बांग्ला बोलने वाली कश्मीरिन हूँ - यहाँ किसी को पहचानती
नहीं पर मेरे रिश्तेदार और बुजुर्ग चारों ओर बिखरे पड़े हैं।”
“पर मेरे जाने का कैसे पता लगा?”
“मैं
कल पूछने गयी थी। यों तो न भी जाती तो भी लग जाता - आप वैज्ञानिक
यन्त्रादि ले जाने का परमिट लेने गये थे - वह अधिकारी मेरे कुछ लगते हैं
मामा-वामा।”
भुवन हँसने लगा, क्योंकि इन सज्जन से बड़ी मनोरंजक
भेंट हुई थी उसकी। वह मानते ही नहीं थे कि युद्ध-काल में यन्त्रादि लेकर
कोई उत्तर के पहाड़ों में जा रहा है तो रूस से सम्बन्ध जोड़ने के सिवा
उसका कोई उद्देश्य हो सकता है। फिर जब उसने कहा कि उसका काम कई
विश्वविद्यालयों के काम से सम्बद्ध है जिन में केम्ब्रिज और अमेरिका के
कुछ विश्वविद्यालय भी हैं तो उन्होंने मान लिया कि वह ब्रिटेन का चर है।
परमिट तो दे दिया, लेकिन बड़ी भेद-भरी दृष्टि से उसे देखते रहे।
फिर उसने कहा, “मुझे तो किसी ने नहीं कहा”
“मैंने कहा था कि मैं स्वयं मिल लूँगी”
“तो तुम जा कहाँ रही हो-पहलगाँव?”
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