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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


ह्वेर विल इट आल एण्ड ? विल इट एण्ड एट आल?
हाइ द विंड राइजेज़ , कोल्ड द रेन विल फ़ाल,
बट इफ़ द सन शोन इट वुड ओनली शाइन
आन अनरीएल सीन्स एण्ड ग्रीफ़ ऐज़ रीएल ऐज़ माइन :
अगेंस्ट द नाइट विंड गोज़ ए लिविंग गोस्ट ,
रीअल , फार इट लब्ज़, एण्ड लैक्स ह्वट इट लब्ज़ मोस्ट।

(उन स्वप्नों से भी भयानक जिनमें पैरों के नीचे धरती खिसक जाती है, मैं जागती हूँ, ठोस पत्थर पर चलती हूँ; तुम्हारे बिना विदेह, प्रतिदिन ठण्डी पूर्वी हवा के सम्मुख अकेली घर की ओर जाती हुई। गिरने के स्वप्नों में केवल डर होता है, गिरना समाप्त हो जाता है, स्वप्न चुक जाते हैं, रात आती है और रात का डर उभर आता है। मैं रक्त-माँस युक्त प्रेत हूँ जिसे भोजन भी करना होता है और वर्षा में छाता भी खोलना होता है।

इसका अन्त कहाँ है? अन्त है भी? हवा तीखी होती जाती है, वर्षा और ठण्डी हो जाएगी, किन्तु सूर्य निकलता भी तो उसकी धूप पड़ती केवल अयथार्थ दृश्यों पर और मेरे यथार्थ दुःख पर।

रात की सनसनाती हवा के सम्मुख जा रहा है एक जीवित प्रेत-यथार्थ, क्योंकि वह प्रेम करता है, और जिसे प्रेम करता है उसे पा नहीं सकता!)

“तुमने मुझे एक बार भी नहीं बताया कि मेरे लिए तुम्हारे हृदय में क्या भाव है। प्रेम, स्नेह, दया, समवेदना, करुणा, क्या? या कि केवल मेरे दुःख ने एक प्रतिध्वनि तुममें जगा दी, बस? क्यों तुमने मुझे अपने इतने निकट लिया?

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