उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“या कि मैं केवल एक धृष्णु साहसिका हूँ, जो अनधिकार तुम्हारे जीवन में घुस
आयी? या...
“यही
एक ही प्रश्न मैं तुमसे पूछना चाहती थी, भुवन, आगे-पीछे कुछ नहीं, केवल
यही एक बात : और इसके लिए साहस नहीं बटोर पायी। तुम्हारे सामने न जाने
क्यों एक संकोच जकड़ लेता है...”
“मैं उदास हो गयी थी, तुम भी
उदास हो गये थे। तुम्हें उदास करना मैं नहीं चाहती थी। तुम्हें उदास देखना
कभी नहीं चाहती...स्वभाव में मैं वैसी नहीं हूँ; तुम ने मुझे उदास, दुःखी,
प्रतिमुखी, अवरुद्ध ही जाना है - सहा है, मेरे भुवन, बड़ी करुणा और स्नेह
के साथ सहा है - पर मैं वैसी नहीं हूँ। मैं हँसती थी। पथ-तट के एक
उपेक्षित फूल को देख मैं विभोर हो सकती थी, लहरों के साथ दौड़ सकती थी, और
नदी की हवा के साथ मेरा मन उड़ जाता था हँसते सुनहले पंख फैलाकर,
अन्तरिक्ष को मेरी हँसी से गुँजाता हुआ...।
“लेकिन भुवन, धीरे-धीरे वह हँसी मरती गयी। मैं कहते लज्जित हूँ; पर वर्षों
से वह मरती रही है, धीरे-धीरे।
ड्राप बाइ ड्राप
स्लोली , ड्राप बाइ ड्राप आफ़ फ़ायर :
एलास माइ रोज़ आफ़
लाइफ़ गान आल टु प्रिक्ल्स ...
(बूँद-बूँद धीरे-धीरे आग-सा-मेरे जीवन का गुलाब काँटा-ही-काँटा रह
गया।-क्रिस्टिना रोजे॓टी)
“तुमने मुझे फिर वह हँसी दी। थोड़ी देर के लिए : लेकिन वही, सच्ची,
मुक्त।”
“अब लगता है, क्या हुआ उसका? अकारण, निराधार हँसी, निष्परिणाम हँसी...
“लेकिन सच्ची हँसी तो स्वतःप्रमाण है, स्वयम्भू, निष्परिणाम...”
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