उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
ज़ीने
से नीचे उतर कर चन्द्र ने कहा, “कश्मीरी गेट में हज़रतगंज वाली बात नहीं
है-यहाँ टहला नहीं जा सकता। टहलना चाहें तो आगे कुदसिया बाग़ की तरफ़”
रेखा ने निश्चयात्मक स्वर से कहा, “नहीं।” फिर कहा, “चलिए नयी दिल्ली की
तरफ़ चलें।”
चन्द्र
ने ताँगा ठहराया, दोनों सवार हो गये। काफ़ी देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर
चन्द्र ने पूछा, “भुवन जी की कोई खबर है? मुझे तो बहुत दिनों से पत्र नहीं
आया।”
“पत्र तो मुझे भी नहीं आया। पर कश्मीर में ही हैं; रिसर्च कर रहे हैं।”
चन्द्र ने प्रतीक्षा की कि रेखा कुछ और कहे। फिर बोला, “आप से तो भेंट हुई
होगी?”
“हाँ।” इस बार और भी संक्षिप्त उत्तर था।
चन्द्र
थोड़ी देर सोचता रहा, दाँव तोलता रहा। फिर उसने कहा, “गौरा जी-गौरा को आप
जानती हैं न? भुवन की शिष्या और अन्तरंग मित्र-कह रही थीं कि आप भी भुवन
जी के साथ गयी हैं; मुझसे आप के बारे में पूछ रही थीं।” तनिक रुककर, “अपने
मास्टर साहब के लिए बहुत चिन्तित थी।”
चन्द्र के प्रश्न पर रेखा का मन कुछ भटक गया था। पर अन्तिम बात से फिर
एकाग्र हो आया। “क्यों?”
चन्द्रमाधव
एक उड़ती-सी हँसी हँसा। मानो कहता हो, 'उसका चिन्तित होना स्वाभाविक ही
है; और ऐसी मामूली बात में मेरी कोई दिलचस्पी भी नहीं है।' फिर साभिप्राय
बोला, “गौरा भुवन की सबसे प्रिय शिष्या है - और अब शिष्या नहीं, मित्र
है।”
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